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________________ धवला-टीका : २४९ प्रथम तो एक ही प्रशस्तिमें दो राजाओका निर्देश कुछ विचित्र-सा ही प्रतीत होता है । दूसरे, राष्ट्रकूट नरेशोमें जगतुगदेव नामक एक ही राजा नही हुआ तथा वोद्दणराय नामक राजा कौन था, इसमें भी विवाद है । इस उलझनके विपयमे प्रो० हीरालालजीने लिखा है-'शक स० ७३८में लिखे गये नवसारीके ताम्रपटमें जगतु गके उत्तराधिकारी अमोघवर्षके राज्यका उल्लेख है। यही नही, किन्तु शक सम्वत् ७८८के सिरूरसे मिले हुए ताम्रपटमें अमोघवर्षके राज्यके ५२वें वर्षका उल्लेख है । जिससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्पका राज्य ७.७से प्रारम्भ हो गया था। तब फिर शक ७३८में जगतु गका उल्लेख किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमारी दृष्टि गा० न ७में 'जगतु गदेवरज्जें' के अनन्तर आये हुए 'रियम्हि' शब्द पर जाती है, जिसका अर्थ होता है 'ऋते' या 'रिक्त' | सभवत: उसीसे कुछ पूर्व जगतुगदेवका राज्य गत हुआ था और अमोघवर्ष सिंहासनारूढ हुए थे। इस कल्पनासे आगे गाथा न० ९में जो वोद्दणराय नरेन्द्रका उल्लेख है, उसकी उलझन भी सुलझ जाती है। वोद्दणराय सम्भवत अमोघवर्पका ही उपनाम होगा । या यह 'वड्डिग'का ही रूप हो और वड्डिग अमोघवर्षका उपनाम हो । अमोघवर्ष तृतीयका उपनाम वद्दिग या वडिग मिलता ही है। यदि यह कल्पना ठीक हो तो वीरसेन स्वामीके इन उल्लेखोका यह तात्पर्य निकलता है कि उन्होने धवला टीका शक सम्वत् ७३८में समाप्त की जब जगतु गदेवका राज्य पूरा हो चुका था और वोद्दणराय राजगद्दी पर बैठ चुके थे।' जिस तरह ३८में ७के अककी कल्पना करके प्रोफेसर साहब ने ७३८ शक सम्वत् निर्धारित किया उसी तरह उक्त कल्पनाके आधार पर ही उन्होने जगतुग और वोद्दणरायकी समस्या को सुलझानेकी चेष्टा की है।। अमोघवर्प प्रथम छै वर्षकी अवस्थामें शक स ७३६में राज्यगद्दी पर बैठा था। अतः ८ वर्पके बालकको 'नरेन्द्रचूडामणि' जैसे विशेषणसे अभिहित किया जाना खटकता है। हमारा विचार है, कि धवला प्रशस्तिकी अन्तिम गाथा सभवत' पीछेसे किसीने उसमें जोड दी है। उसमें आगत शब्द 'विगत्ता' भी अशुद्ध प्रतीत होता है । 'वि' उपसर्ग पूर्वक 'कृत' धातुसे प्राकृत रूप 'विगत्ता' बनता है, जिसका अर्थ होता है छेदी गई या काटी गई। इस अर्थका वहां कोई सम्बन्ध नही है। अत "विअत्ता' पाठ उचित प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है स्पष्ट की गई । अर्थात् 'जब नरेन्द्रचूडामणि वोद्दणराय नरेन्द्र पृथ्वीका उपभोग करते थे उस समय सिद्धान्तग्रन्थका मथन करने वाले गुरुके प्रसादसे उस धवलाको व्यक्त किया गया १ वही, पृ ४१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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