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________________ २१४ . जनसाहित्यका इतिहास कथन हैं। पर उसकी विशेष क्रिया अधिकार में सर्वप्रथम समुच्छिन्नमक्रियाप्रतिया महातका कथन उसके बाद इसी तरह चारियमोहक्षपणा नामक अन्तिम अधिकारमें सर्वप्रथम उसके प्रस्थापकका कथन किया है । फिर उसकी विशेप क्रियाका कयन किया है । अन्तमें कृष्टिवेदकक्रियाका कथन है । पुन कृष्टिक्षपणक्रियाका कथन है । चूर्णिसूनोके अन्तमें उपत पन्द्रह अर्थाधिकारीसे अतिरिक्त एक पश्चिम स्कन्धाधिकार विशेष है। इसमें कहा है कि सयोगकेवली अन्तमुहूर्त आयु शेप रहने पर पहले आवजित करण करते है, उसके बाद केवली समुद्धात करते है । इस तरह इसमे केवलीसमुद्धातका कथन है। केवलीसमुद्धातके मनन्तर सयांगकेवली सूक्ष्मक्रियाप्रतियाति ध्यानको करते है। फिर अयोगकेवली होकर समुच्छिन्नक्रियामनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याकर एक समयमें मुक्ति स्थान पहुच जाते हैं। नीचे हम चूणिसूयोकी संख्या अधिकारानुसार देते हैं अधिकारके क्रमसे चूणिसूत्रोकी सख्या पेज्जदोसविहत्ती प्रकृतिविभक्ति स्थितिविभत्ति अनुभागविभक्ति (प्रदेशविभक्ति झीणाझीण १४२ (स्थित्यन्तिक बन्धक सक्रम ७४० वेदक उपयोग orrowr-~ चतुस्थान १४० व्यञ्जन सम्यक्त्व । दर्शनमोहक्षपणा सयमासयमलब्धि सयमलब्धि चारित्रमोहोपशमना चारित्रमोहक्षपणा पश्चिमस्कन्ध ७०६ १५७२ ५२
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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