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________________ चूणिसूत्र साहित्य : २११ जो ण पमाण-णएहि णिक्खेवेण णिरक्खदे अत्थ । तस्साजुत्त जुत्त जुत्तमजुत्त च पडिहादि ॥८२॥ अर्थात् जो नय, प्रमाण, निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता, उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ भयुक्त प्रतीत होता है । इस आचार्यपरम्परासे आगत न्यायको दृष्टि में रखकर चूणिसूत्रोमें भी तदनुसार कथन किया है । प्रथम गाथामें आगत 'कसायपाहुड' शब्दपर चूणिसूत्र द्वारा कहा गया है-उस पाहुडके दो नाम है-पेज्जदोसपाहुड और कसायपाहुड । पेज्जदोसपाहुडनाम अभिव्याहरण निष्पन्न है और कसायपाहुडनाम नयनिष्पन्न है । पेज्जका निक्षेप करते है-नामपेज्ज, स्थापनापेज्ज, द्रव्यपेज्ज, भावपेज्ज । नेगम, सग्रह, व्यवहारनय सब निक्ष पोको स्वीकार करते है । ऋजसूत्रनय स्थापनाको छोडकर शेप तोनको स्वीकार करता है। शब्दनय नामनिक्षेप और भावनिक्षेपको स्वीकार करता है। इसी तरह दोस कसाय और पाहुडमें भी निक्षपोकी योजना करके उनमें नयकी योजना की है। पाहुडशब्दकी निरुक्ति 'पदेहि पुद' की है अर्थात् पदोसे स्फुट होनेसे प्राभूत कहते है। प्रकृतिविभक्तिका कथन करते हुए विभक्तिका निक्षेप किया है-नामविभक्ति, स्थापनाविभक्ति, द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, गणनाविभक्ति सस्थानविभक्ति और भावविभक्ति । विभक्तिका अर्थ करते हुए कहा है-तुल्यप्रदेशी द्रव्य तुल्यप्रदेशी द्रव्यका अविभक्ति है और वही द्रव्य असमानप्रदेशी द्रव्यका विभक्ति है अर्थात् विभक्तिका अर्थ असमानता है। प्रकृतिविभक्तिके अन्तर्गत प्रकृतिस्थानविभक्तिका कथन करते हुए मोहनीय कर्मके पन्द्रह प्रकृतिसत्वस्थान कहे है-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२,११, ५, ४, ३, २ १। चूर्णिसूत्रकारने इनका कथन एकसे किया है। किन्तु यहाँ हम मोहनीयकर्मके इन सत्वस्थानोको इसी क्रमसे लिख रहे जिस क्रमसे ऊपर कहे है । उससे पाठक यह जान सकेंगे कि मोहनीयकर्मका क्षय किस क्रमसे होता है । __ मोहनीयकर्मको उत्तरप्रकृतियाँ अठाईस है। जिसके सब प्रकृतियोको सत्ता है वह अट्ठाईस प्रकृतिस्थान विभक्तिवाला है। ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिथ्यादृष्टि होता है। उनमेंसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । उसके सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्ता होती है । उनमेंसे सम्यक्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करने वाला सादिमिथ्यादृष्टिजीव या
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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