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________________ ६ : जैन साहित्यका इतिहास पश्चात् क्रमश पांच आचार्य श्रुतज्ञानके पारगामी हुए, जिनमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । भद्रबाहुके पश्चात् श्रुतज्ञानका क्रमण विच्छेद होना प्रारम्भ हो गया । (भद्रवाहुके पदनात् ग्यारह आचार्य ग्यारह अगो और दग पूर्वीक पारगामी तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए । उनके पश्चात् क्रमण पांच आचार्य ग्यारह अगांके पारगामी और चौदह पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए। उनके पश्चात् क्रमश चार आचार्य आचारागके पूर्ण ज्ञाता और शेप अगो तथा पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए। इस तरह भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्पतक श्रुतकी परपरा चालू रही । तत्पश्चात् गव अगो और पूर्वोका एकदेश धरसेनाचार्य और गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । गुणधर भट्टारक ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्वको दमवी वस्तु सम्वन्धी तीसरे कपायप्राभृत नामक महारामुद्रके पारगामी थे। उन्होने ग्रन्थविच्छेदके भयसे सोलह हजार पदप्रमाण 'पेज्जदोमपाहुड' का एक्सो अस्मी गाथाओमे उपसहार किया और उन्हे कमायपाहुड ( कपायप्राभृत ) नाम दिया । भाचार्य घरसेन अष्टाग महानिमित्त पारगामी थे और उस समय सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरकी चन्द्रगुफामें रहते थे । उन्होने गन्थ- विच्छेदके भयसे प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर महिमा नामकी नगरीमे सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास एक लेख भेजा । उस लेखसे धरसेनाचार्यके अभिप्रायको भली-भांति जानकर उन आचार्यांने दो सुयोग्य साधुओको आध्र देशमे बहनेवाली वेणा नदीके तटसे भेजा । इधर एक दिन धरसेनाचार्यने रात्रिके पिछले पहर स्वप्तमे दो श्वेत विनम्र बैलोको अपने चरणोमें नमस्कार करते हुए देखा । उसी दिन वे दोनो साधु घरसेनाचार्यके चरणोमे पहुँच गये । मार्गका श्रम दूर होने पर तीसरे दिन दोनो साधुओने अपने आगमनका प्रयोजन आचार्यसे निवेदित किया । आचार्यने उनकी परीक्षा लेनेके निमित्तसे उन्हे विद्याएं सिद्ध करनेके लिए दी । उनमेसे एकमें अधिक अक्षर थे और दूसरी कम । विद्याएँ सिद्ध हो गई, किन्तु दोनों विद्यादेवताओोका रूप विकृत था, एक देवीके दाँत बाहर निकले थे ओर दूसरी कानी थी । 'देवता विकृत अगवाले नही होते' ऐसा विचारकर उन दोनोने मत्रशास्त्र सम्वन्धी व्याक से अपनी-अपनी विद्याओके हीनाधिक अक्षरोको ठीक करके पुन सिद्ध किया, तो दोनो विद्यादेवताएँ अपने स्वाभाविक रूपमें दृष्टिगोचर हुईं। विद्या सिद्ध करनेपर उन्होने आचार्यसे सव वृत्तान्त निवेदित किया । सन्तुष्ट होकर धरसेनने उन्हें पढाना प्रारम्भ किया । पठन समाप्त होनेपर उनमें से एककी पूजा भूत जातिके देवोने की । इससे धरसेनने उनका नाम भूतबलि रखा । दूसरे साधुकी भूतोने अस्त-व्यस्त दंतपक्तिको पूजापूर्वक सुन्दर बना दिया, इससे
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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