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________________ १८८ - जैनसाहित्यका इतिहास कहत है और जो न कहते है। रनेवाला प्राभत पे ___ 'उस' प्राभृतके दो नाम है-पेज्जदोसपाहुड और कमायपाहुड। इन दोनो नामोमेंसे पेज्जदोसपाहुड नाम अभिव्याहरण निष्पन्न है।' । अभिमुख अर्थके व्याहरण अर्थात् कथनको अभिव्याहरण कहते है और जो उससे उत्पन्न हो उसे अभिव्याहरण निष्पन्न कहते है । अत पेज्ज ( प्रेय ) और दोसका कथन करनेवाला प्राभूत पेज्जदोस प्राभृत कहलाता है । 'और कसायपाहुड नाम नय निष्पन्न है ।' आशय यह है कि 'पेज्ज और दोस' ये दोनो कपाय कहलाते है। और कषायका कथन करनेवाले प्राभृतको कपाय प्राभूत कहते है । अत. कसायपाहुड नाम नयनिष्पन्न है क्योकि द्रव्यार्थिक नयके द्वारा पेज्ज और दोसका एकीकरण करके उन्हें कपाय सज्ञा दी गई है । अस्तु पेज्ज, दोस, कसाय और पाहुड ये शब्द जिनसे दोनो नाम बने है, अनेक अर्थोमें व्यवहृत होते हुए पाये जाते है । इसलिये अप्रकृत अर्यका निषेध करके प्रकृत अर्थका, जो वहाँ लिया गया है-ग्रहण करनेके लिये चूणिसूत्रकार उनमें निक्षेपोकी योजना करते हैं-उन चारो शब्दों से पहले पेज्जका निक्षेप करना चाहिये--नामपेज्ज, स्थापनापेज्ज, द्रव्यपेज्ज, और भावपेज्ज ।' ऐसा कहा है कि-'पदैका उच्चारण करके और उसमें किये गये निक्षेपोको जानकर 'यहाँ इस पदका क्या अर्थ है' इस प्रकार ठीक रीतिसे अर्थ तक पहुंचा देते है अर्थात् अर्थका ठीक-ठीक ज्ञान करा देते है इसलिये उन्हे नय कहते हैं ।' अत निक्षेपकी योजना करके और उसके अर्थको स्थगित करके चूर्णिसूत्रकार यह बतलाते है कि कौन नय किस निक्षेपको चाहता है 'नगमर्नय, सग्रहनय और व्यवहारनय सभी निक्षेपोको स्वीकार करते है।' ___'ऋजूसूत्रनय स्थापनाके सिवाय सभी निक्षेपोको स्वीकार करता है।' १ 'तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जावि। त जहा-पेज्जदोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति वि। तत्य अभिवाहरणनिप्पण्ण पेज्जदोसपाहुड। णयदो णिप्पण्ण कसायपाहुट क० पा० भा० १, पृ० १९७-१९९ । २ 'तत्य पेज्ज णिक्खियन्व-णामपेज्ज ठवणपेज्ज दव्वपेज्ज भावपेज्ज चेदि ।-क० पा० भा० १, पृ० २५८ ३ 'उच्चारयम्मि दु पदे णिक्खेव वा कय तु ठूण । अत्थ णयति ते तच्चदो त्ति तम्हा णया भणिदा ॥११८॥-क० पा० मा० १, पृ० २५९ ४ णेगमसगहववहारा सव्वे इच्छति- क. पा० भा० १, पृ० २५९ । ५ 'उजुसुदो ठवणवज्जे' । पृ० २६० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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