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________________ १८० . जनसाहित्यका इतिहास णिज्जा सुत्तसमुविकत्तणा । त जहा-' अर्थात् यहाँसे आगे प्रकृतिस्थान सक्रमका प्रकरण है। उसमें प्रथम गाथासूत्रोकी समत्कीर्तना करनी चाहिये ।' इसके पश्चात् ३२ गाथाएँ आती है । उनके अन्तमे चूणिसूत्र इस प्रकार है "सुत्तसमुक्कीत्तणाए समत्ताए इमे अणिओगद्दारा ।' अर्थात् संक्रम सम्बन्धी गाथाओकी समुत्कीतनाके समाप्त होनेपर ये (आगे कहे गये) मनुयोगद्वार ज्ञातव्य है।' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये बत्तीस गाथाएँ चूणिसूत्रकारके सन्मुख थी। किन्तु उन्होने इनका पदच्छेदरूपसे या विभाषारूपसे व्याख्यान करना आवश्यक नही समझा। इनमें आगत विषयका परिज्ञान अनुयोगद्वारोमें आगत विवेचनसे हो जाता है। किन्तु शेप १८ गाथाओंका न तो कोई उत्थानिकासूत्र है और न कोई उपसहारसूत्र । मानो ये गाथाएं उनके मामने थी ही नहीं। यद्यपि चूणिसूत्रोके अनुगमसे ऐसा प्रमाणित नहीं होता। फिर भी साधारण दृष्टिसे देखनेपर ऐसा ही प्रतीत होता है । ___ अव जिन गाथाओपर चूणिसूत्र है उनके विषयमें प्रकाश डालेंगे । गाथा नम्बर एकपर जो चूर्णिसूत्र है उनकी उत्थानिकादि नही है तथा चूणिसूत्रकी रचना उपक्रमरूप होते हुए भी इस प्रकारसे की गई है कि उसमे गाथाका अभिपाय आ जाता है। इस उपक्रमके रूपमें' आगे अलगसे प्रकाश डालेंगे। गाथा नम्बर दो से बारह तक पर कोई चूणिसूत्र नहीं है। गाथा नम्बर १३ और १४ में कसायपाहुडके पन्द्रह अधिकारोका निर्देश है । इन गाथाओकी भी कोई उत्थानिका नहीं है और चूणिसूत्रोमें केवल पन्द्रह अधिकारोके नाम इस तरहसे दर्शाए है कि दोनो गाथाओंके प्राय पूरे शब्द १ क० पा० सू०, पृ० ०८७ । २ 'पुव्वम्मि पचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए । पेज्ज ति पाहुटम्मि दु हवदि कसा याण पाहुड णाम ॥१॥ चू० सू०-णाणप्पवादस्स पुवस्स दसमस्त वत्युस्स तदियस्स पाहुडस्स पचविहो उवक्कमो।' ३ पेज्जदोसविहत्ती ठिदि अणु भागे च वधगे चेय। वेदग उवजोगे वि य चउट्ठाण "वियजणे चेय ॥१३॥ सम्मत्त देसविरयी सजम उक्सामणा च खवणा च । दसण-नरित्तमोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥ चू० सू०-अत्याहियारो पण्णारसविहो (अण्णेण पयारेण)। त जहा-पेज्जदोसे १, विहत्तिष्ठिदि अणुभागे च २, वधगे त्ति वधो च ३, सकमो ४, वेदए ति उदओ च ५, उदीरणा च ६, उवजोगे च ७, चउठाणे च ८, वजणे च ९, सम्मत्ते ति दसणमोहणीयस्स उवसामणा च १०, दसणमोहणीयक्खवणा च ११, देसविरदी च १२, सजमे उवसामणा च खवणा च-चरित्तमोहणीयस्स उवसामणा च १३, खवणा च १४, 'दसणचरितमोहे' त्ति पदपरिवूरण । अद्धापरिमाणणिद्देसो त्ति १५, एसो अत्याहियारो पण्णारसविहो । -क० पा०, मा० १, पृ० १८४-१९ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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