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________________ . . चूणिसूत्र साहित्य • १७७ . इस दूसरे अधिकारके अन्तर्गत बाईसवी गाथाका' पदच्छेद करते हुए यतिवृषभने इसमें प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झोणाझीण और स्थित्यन्तिकका समावेश कर लिया है। आगे बधकके दो भेद बध और सक्रम करके तीसरे और चौथे अधिकारका ग्रहण किया है । आगे वेदका अणियोगद्वारके उदय और उदीरणा भेद करके पांचवें और छठे अधिकारका निर्देश किया है । गुणधराचार्यने वेदकके दो भेद नही किये है । आगे 'उवजोगेत्ति अणियोगद्दारस्स सुत्त' लिखकर सातवें उपयोग अधिकारका निर्देश किया है । आगे 'चउठाणेत्ति अणियोगद्दारे" लिखकर आठवें चतुस्थान नामक अधिकारका निर्देश किया है । फिर 'वजणेत्ति अणिमोगद्दारस्स सुत्त' लिखकर नौवें व्यजन नामक अधिकारका निर्देश किया है। कसायपाहुडकी अधिकार-निर्देशक गाथा १४ में 'सम्मत्त' पद आया है उससे यतिवृषभने भी दो अधिकार लिये है-एक दर्शनमोहकी उपशामना और एक दर्शनमोहकी क्षपणा । किन्तु अधिकारोका वर्णन करते समय एक सम्यक्त्व' नामक अनुयोगद्वारका ही निर्देश किया है । यद्यपि उसके अन्तर्गत. दर्शनमोहकी उपशमना और क्षपणा दोनोका कथन किया है किन्तु उनका निर्देश अनुयोगद्वार शब्दसे नही किया। आगे देशविरति नामक १२ वें अधिकारका निर्देश है। यह पहले लिख आये है कि गुणधराचार्यने तेरहवां अधिगर नामक माना है और यतिवृपभने इसे नही माना। किन्तु क रने १. 'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह टिठदीए अणुभागे । उक्कलन ठिदिय वा ॥२२॥ चणिसू०--पदच्छेदो। त जहा- - - त्ति एसा पयडिविहत्ती । तह ठ्ठिदी चेदि एमा किनविहत्ती। उक्कस्समणुक्कस्स त्ति पदेसविहत्ती। ' -क० पा० सु०, पृ० ४८-४९ । २ 'वधगेत्ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तन्ह----- पु०-२४८)। ३ 'वेदगेत्ति अणियोगहारे दोणि अगिर्ग = = = = • -क० पा० सु० पृ० ४६५ । ४ क. पा० सु० पृ० ५५६ । ५. क. पा० सु० पृ० ५९७ ॥ ६ वही पृ० ६१२। ७. 'कसायपाहुडे मम्मन्द्रे -- : : ८ 'देसविरदेत्ति अ-ि ----
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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