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________________ महाबंध · १५३ जो मगल किया है उसे टीकाकार' वीरसेनने शेप तीनो खण्डोका अर्थात् वेदना, वर्गणा और महाबन्धका मंगल बतलाया है, क्योकि वर्गणा और महावन्धखण्डके आदिमें मगल नहीं किया है । अत यह स्पष्ट है कि महावन्धके प्रारम्भमें ग्रन्थकार भूतवलिने मंगल नहीं किया। ___ महावन्धका प्रकाशन हो जानेपर भी यह बात हमें इसलिये लिखनी पड़ी है कि इस ग्रन्थराजकी केवल एक ही प्रति मूडबिद्रीके सिद्धान्तवसतिभण्डारमें सुरक्षित मिली, किन्तु उसके भी १४ ताडपत्र नष्ट हो गये थे। उनमें पहला पत्र भी था। इसलिये भूतवलिने इस खण्डग्रन्थका आरम्भ किस रूपमें किया था, उसके जाननेका कोई उपाय नहीं है। ____ वर्गणाखण्डके नन्धनअनुयोगद्वारके अन्तमें अथवा यह कहना चाहिये कि महावन्धके आरम्भसे पूर्वमें वन्धनके चार भेदोमेंसे बन्ध, बन्धक और वन्धनीयका कथन करनेके पश्चात् बन्धविधानके चार भेद कहे है-प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्ध । इन्ही चार बन्धोका वर्णन महाबन्धमें है । वन्धोका विस्तारसे कथन होनेके कारण ही इसका नाम महावन्ध रखा गया है। पहले प्रकृतिवन्धका कथन है। चूंकि प्रथम ताडपात्र नष्ट हो गया है, अत अवधिज्ञानका निरूपण करने वाली गाथाओसे उपलब्ध महावन्धका प्रारम्भ होता है । ये गाथाएँ वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमें भी आई है। एक तरहसे प्रकृतिअनुयोगद्वारसे ही महावन्धका आरम्भ होता है । यहाँ उसका नाम प्रकृतिसमुत्कीर्ण है । महावन्धका प्रकृतिसमुत्कीर्तन वर्गणाखण्डके अन्तर्गत प्रकृतिअनुयोगका ही सक्षिप्त रूप है। वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमें पृच्छासूत्र भी है-'मणपज्जवणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियामओ पयडीओ' अर्थात् मन पर्ययज्ञानावरणीयकर्मकी कितनी प्रकृतियां है। इस प्रकारके पृच्छासूत्र महाबन्धमें नहीं है, केवल विषयप्रतिपादन है और वह प्राकृतगद्यरूपमें है। दोनोंका अन्तर दिखानेके लिए यहाँ दोनो ग्रन्थोसे कुछ पक्तियाँ उद्धृत की जाती है 'मणपज्जवणाणावरणीयस्य कम्मस्स दुवे पयडीओ उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीय चेव विउलमदिमणपज्जवणाणावरणीय चेव ॥६१॥ ज त उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीय णाम कम्म त तिविह-उजुग मणोगद जाणदि १. 'उवरि उच्चमाणेसु तिसु खडेसु कस्सेदं मगल ? तिण्ण खडाण। कुदो? वग्गणामहा बंधाणमादीए मगलाकरणादो।'-पटख पु० ९, पृ० १०५ । २ 'न त वधविहाण त चउन्विह –पयडिवधो दिदिवयो अणुभागवधो पदेसबधो चेदि ॥७९॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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