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________________ १४० जनसाहित्यका इतिहास वणा, दन्वपमाणाणुगमो, खेताणुगगो फोसणाणुगमो, कालाणुगमो, अतराणुगमो भावाणुगमो अप्पवहुगाणुगमो चेदि ॥ १२९ ।। इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है-रात्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगग, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पवहुत्वानुगम। ये आठो अनुयोगहार वही है, जिनका जीवट्ठाणके सतपस्वणा अनुयोगद्वारके आदिमें पुष्पदन्ताचार्य ने निर्देश किया था। भूतबलिने शारीरिशरीरप्ररूपणाका कथन इन्ही आठ अनुयोगोके द्वारा किया है । ओघसे कथन करते हुए कहा है कि-'मोघसे दो गरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीररहित जीव होते है ॥ १३१ ।। विग्रह गतिमें वर्तमान चारो गतियोके जीव दो शरीरवाले होते है क्योंकि उनके वहां तैजस और कार्मण ये दो ही शरीर होते है। औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरवाले मनुष्य और तियञ्च अथवा वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरवाले देव और नारकी तीन शरोरवाले होते है । औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण अथवा औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरवाले जीव चार शरीरवाले होते है । और मुक्त जीव शरीररहित होते है। आगे सूत्रकारने आदेशसे १४ मार्गणामोमें उक्त शरीरवाले जीवोकी सत्ताका कथन किया है। सतपरूवणाके पश्चात् छै अनुयोगद्वारोका कथन सूत्रकारने नही किया । टीकाकार वीरसेनस्वामीने धवलाटीकामें उनका कथन किया है। सूत्रकारने अन्तिम अल्पवहुत्वानुगमका कथन किया है। उसके साथ ही शरीरिशरीरप्ररूपणाका कथन समाप्त हो जाता है। उसके पश्चात् शरीरप्ररूपणाका कथन प्रारम्भ होता है। शरीरप्ररूपणा शरीरप्ररूपणा छ अनुयोगोके द्वारा की गई है । वे छै अनुयोगद्वार है-नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निपेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमासा और अल्पबहुत्व ॥ २३६ ।। नामनिगक्तिमें सूत्रकारने प्रत्येक शरीरके नामकी निरुक्ति की है-'उरालमिदि ओरालिय ॥२३७॥ उदार-स्थूल होनेसे औदारिक कहा जाता है। 'विविहगुण इड्ढिजुत्तमिदि वेउन्विय ॥ २३८ ॥' विविध गुणो और ऋद्धियोसे युक्त होनेसे वैक्रियिक कहा जाता है। 'णिवुणाण वा णिण्णाणं वा सुहमाण वा आहारदव्वाण सुहुमदरमिदि आहारय
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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