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________________ छक्खडागम १२१ इसमें बतलाया है कि नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठो कर्मोकी वेदना अनन्तरबन्ध है, पराम्परावन्ध है और तदुभयवन्ध है । सग्रहनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठो कर्मोकी वेदना अनन्तरवन्ध और परम्पराबन्ध है । ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा आठो कर्मोकी वेदना परम्पराबन्ध है। इसमे ११ सूत्र है। १२ वेदनासन्निकर्षविधान' ज्ञानावरणादि कर्मोकी वेदना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट भी होती है और जघन्य भी होती है । जघन्य तथा उत्कृष्ट भेदरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोमेसे किसी एकको विवक्षित करके उसमे शेप पद क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, अथवा क्या अजघन्य है इस प्रकारकी जो परीक्षा की जाती है उसे सन्निकर्ष कहते है। उसके दो भेद है-स्वस्थानवेदनासन्निकर्प और परस्थानवेदनासन्निकर्प। किसी एक विवक्षित कर्मका जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एव भाव विपयक सन्निकर्ष होता है वह स्वस्थानवेदनासन्निकर्प है। और आठो कर्मविषयक सन्निकर्प परस्थानवेदनासन्निकर्ष है। ___स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष दो प्रकारका है—जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट स्त्रस्यानवेदनासन्निकर्प चार प्रकारका है, द्रव्यसे, क्षेत्रमे, कालसे और भावसे ॥ ॥ जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६ ॥ नियमसे अनुत्कृष्ट और असख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७ ॥ इसका खुलासा धवलाटीकामें किया है । __ इसी तरह, जिसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्र से उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।। १६ ॥ इत्यादि कथन है । इस अनुयोगद्वारमे ३२० सूत्र है। १४ वेदनापरिमाणविधान पहले द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करके आठ ही प्रकृतियाँ कही है । तथा उन आठो प्रकृतियोके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की है। यहाँ पर्यायाथिकनयका अवलम्बन करके प्रकृतियोके परिमाणका कथन किया गया है। इसमें यह तीन अनुयोगद्वार है-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय ॥ २ ॥ प्रकृतिभेदसे कर्मभेदकी प्ररूपणा पहला अधिकार है। एक समयमें जो बाँधा जाता है वह समयप्रवद्ध है। समयप्रवद्धोके भेदसे प्रकृतिभेदकी प्ररूपणा दूसरा षट्ख०, पु० १२, पृ० ३७५ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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