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________________ छक्खंडागम • ११९ उपचित कर्मपुद्गलस्कन्ध कथञ्चित् जीव है, क्योकि वह जीवसे भिन्न नही पाया जाता। इस विवक्षासे जीवके वेदना होती है । तथा अनन्तानन्तविस्रसोपचयोसे उपचित कर्मपुद्गलस्कन्ध प्राणरहित होनेसे अथवा ज्ञान-दर्शनसे रहित होनेसे नोजीव है और उससे अभिन्न होनेसे जीव भी कथञ्चित् नोजीव है। ____ इस तरह जीव, नोजीव, अनेक जीव, अनेक नोजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और अनेक नोजीव, अनेक जीव और एक नोजीव, तथा अनेक जीव और अनेक नोजीवोकी वेदनाका स्वामी उक्त दो नयोसे बतलाया है । धवलाकारने प्रत्येक भगका स्पष्टीकरण धवलाटीकामे किया है । इस तरह वेदनाके स्वामी जीव और पुद्गल दोनो होते है। सग्रहनयकी अपेक्षा वेदनाका स्वामी जीव है क्योकि सग्रहनय जीव और अजीवका अभेद मानता है । इस अनुयोगद्वारमे केवल १५ सूत्र है। १० वेदनावेदनाविधान ___जिसका वर्तमानमें वेदन किया जाता है या भविष्यमे वेदन किया जायगा, वह वेदना है। इस निरुक्तिके अनुसार आठ प्रकारके कर्मपुद्गलस्कन्धको वेदना कहा है । और अनुभवन करनेका नाम वेदना है । वेदनाकी वेदनाको वेदनावेदना कहते है अर्थात् आठ प्रकारके कर्मपुद्गलस्कन्धोके अनुभवन करनेका नाम वेदनावेदना है । उसके विधान-कथन करनेको वेदनावेदनाविधान' कहते है। वेदनावेदनाका विधान करते हुए सूत्र २ के द्वारा कहा है कि नैगम नयकी अपेक्षा सभी कर्मको प्रकृति मानकर यह प्ररूपणा की जाती है। इस सूत्रकी धवलामें स्पष्टीकरण करते हुए यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि नैगमनय वध्यमान (जो वध रहा है ), उदीर्ण ( जो उदयमें आ गया है ) और उपशान्त ( जो सत्तामें स्थित है ) इन तीनो ही कर्मोकी वेदनासज्ञा स्वीकार करता है। तदनुसार कहा गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना कथञ्चित् वध्यमानवेदना है, कथञ्चित् उदीर्णवेदना है, कथञ्चित् उपशान्तवेदना है, इत्यादि अनेक भगोके द्वारा वेदनावेदनाका विधान कुछ विस्तारसे किया है । और धवलाटीकामे उन सव भगोके स्पष्टीकरणके साथ ही उनके अनेक अवान्तर भगोका भी कथन किया है। इस अनुयोगद्वारमे ५८ सूत्र हैं । ११ वेदनागतिविधान इस अनुयोगद्वारमे वेदनाकी गति अर्थात् गमनका कथन है। इसलिए इसे ', 'का वेयणा ? वेधते वेटिष्यत इति वेदनागब्दसिद्ध । अठविहकम्मपोग्गलक्स धो वेयणा अनुभवन वेदना। वेदनाया वेदना वेदनावेदना अप्टकर्मपुदगल. म्कन्धानुभव इत्यर्थ ।-पट्स०, पु० १२, पृ० ३०२ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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