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________________ १०२ जनसाहित्यका इतिहास धवलाटीकामे इमका रपष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस राशिक वर्गमें उसकी मूल राशिको घटा देने पर जो शेष रहे उसका वर्ग करने पर वृद्धिको प्राप्त हो उसे कृति कहते है । जैसे तीनके वर्ग नौमसे तीनको घटा देने पर छ शेप रहते है उसका वर्ग ३६ होता है मत तीन रागि कृति है। एफ रागिका वर्ग करने पर भी एक ही लय आता है, गशि वढती नही और उसमेंसे मूलगशि एक को घटा देने पर कुछ भी शेप नही रहता । अतः एक राशि नोकृति है । दो का वर्ग करने पर राशि बढ़ जाती है, इसलिये दाको नोकृति नही कह सकते । और चूंकि उसके वर्ग ४ मेरो उसके मूल दोको घटाने पर दो शेष रहते है और उसका वर्ग करने पर चार ही होते है-राशि बढती नही, अत दोको कृति भी नही कह सकते। सूत्र ६७में ग्रन्यकृतिका रवरूप बतलाते हुए कहा है-लोकमें, वेदमें, समयमे शब्दप्रवन्धरुप अक्षरकाव्यादिकी जो ग्रन्यग्नना की जाती है उमे ग्रन्य. कृति कहते है। सब कृतियोका स्वम्प बतलानेने बाद सूत्रकारने यह प्रश्न किया है कि इन कृतियोमेसे कौन-सी कृतिसे यहाँ प्रयोजन है । और उनका उत्तर दिया है कि गणनाकृतिसे यहां प्रयोजन है। इसकी व्याख्यामे धवलाकाग्ने लिखा है कि गणनाको जाने विना शेप अनुयोगद्वारोका थन नही हो सकता। इस कृति अनुयोगद्वारमे ७६ सूत्र है। कृति अनुयोगद्वार और श्वेताम्बरी अनुयोगद्वारको निरूपणशैलीमें बहुत कुछ समानता है । कृति अनुयोगद्वारमें कृतिके सात भेद किये है और अनुयोगद्वारसूत्रमें आवश्यककी चर्चा होनेसे आवश्यकके चार भेद किये हैं। नामावश्यक स्थापनाआवश्यक, द्रव्यावश्यक और भावावश्यक । कृतिके मात भेदोमें भी नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति और भावकृति ये चार भेद है। इन चारो भेदोके स्वरूपबोधक सूत्रोमें कितनी समानता है, यह दोनो ग्रन्थोके सूत्रोके मिलानसे स्पष्ट हो जाता है। १ 'जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा अजोवस्स वा, जीवाण वा, अजीवाण वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवत्स च अजीवाण च, जीवाण च अजीवस्स [च], जीवाण च अजीवाण च ।। ५१ ॥'-पट्ख०, पु० ९, पृ० २४६ । १ 'से कि त नामावस्सयं ? जस्स ण जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सएत्ति नाम कज्जइ से त नामावस्सय ॥ ९॥'-अनु० सू० । । 'जा सा गथकदी णाम सा लोए वेदे समए सहपवधणा अक्खरकव्वादीण जा च गथ रयणा कीरये सा सन्वा गथकदी णाम ॥ ६७ ॥-पु. ९, पृ० ३२१ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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