SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खडागम ९९ पट्खण्डागममें गतिके आश्रयमे प्रकृतियोका निर्देश करके यह बतलाया है कि इन प्रकृतियोका बध अमुक गुणस्थानवाले करते है । जैसे—आदेशसे' गतिके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोमे अमुक प्रकृतियोका (७० प्रकृतियोके नाम गिनाये है । कौन बन्धक है और कोन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर असयत सम्गग्दृष्टि तक बन्धक है । निद्रानिद्रा आदि ( २५ प्रकृतियोके नाम गिनाये है ) का कौन वधक है, कोन अबधक है ? मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेप अवन्धक है । मिथ्यात्व आदि ४ का कौन बधक है और कोन अबधक है ? मिथ्यादृष्टि बन्धक है, शेष अबन्धक है । मनुष्यायुका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टि, मासादनसम्यग्दृष्टि और असयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेष अवन्धक हैं । तीर्थकरनामकर्मका कौन वन्धक है और कौन अवन्धक है ? असयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेष अवन्धक है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सामान्यसे नरकगतिमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ७० + २५ + ४ + १ + १ = १०१ है । उनमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें १०० ही बन्धयोग्य है, तीर्थकर वन्धयोग्य नही है । तथा १०० मेंसे सासादनसम्यग्दृष्टि गणस्थानमें ९६ ही बन्धयोग्य है, मिथ्यात्वादि चारका वन्ध केवल मिथ्यादष्टिके ही होता है । तथा नरकगतिमे चार ही गुणस्थान होते है । इन सब फलितार्थोके अनुसार कर्मग्रन्थमे २ कथन किया है कि नारकी मामान्यसे १०१ कर्मप्रकृतियोको बांधते है। किन्तु पहले गुणस्थानमें वर्तमान नारकी १०१ मेंसे तीर्थकरके बिना १०० कर्मप्रकृतियोको बांधता है और सासादनगुणस्थानमें वर्तमान नारकी उनमेंसे ४ प्रकृतियोको छोडकर ९६ को ही बांधता है इसी तरह इस तीसरे खण्डके प्रारम्भमें सामान्यसे प्रकृतियोका नाम निर्देश करके उनके वन्धक और अवन्धक गुणस्थानोका निर्देश किया है । उससे यह फलित होता है कि अमुक गुणस्थानमें इतनी कर्मप्रकृतियां वन्धयोग्य है । तदनुसार दूसरे कर्मग्रन्थमें गणस्थानोमें बन्धयोग्य प्रकृतियोका निर्देश किया है। अतः गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें जो कर्मप्रकृतियोके बन्धस्वामित्वका कथन दिगम्बर और श्वेताम्वर परम्परामे पाया जाता है उसका मूल बन्धस्वामित्वविचयनामक तीसरा यह खण्ड ही प्रतीत होता है क्योकि श्वेताम्बर परम्परामें भी इस विषयका निरूपक कोई अन्य आकर ग्रन्थ उपलब्ध नही है। १. पटख० पु०८, मूत्र ४३-. । २ 'सुरइगुणवीमवज्ज इसास: ओहेण वहि निरया । तित्थ विणा मिच्छिसय सासणि नपु चर विणा छनुई ॥ ४ ॥'-कर्म ० ३ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy