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________________ छक्खडागम १९१३ मनुष्य बन्धक भी है और अवन्धक भी है। इम तरह तेतालीस सूत्र तक वन्धकोके सत्वका कथन है । - आगे कहा है कि इन वन्धकोके प्ररूपणार्थ ग्यारह अनुयोगद्वार जानने योग्य है - वे ग्यारह अनुयोगद्वार है— एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवोकी अपेक्षा काल, नाना जीवो - की अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व || सब अनुयोगद्वारोका विवेचन प्रश्नोत्तर शैली मे किया गया है । 1 १ स्वामित्व - --नरक गतिमे नारकी जीव कैसे होता है ? नरकगतिनामकर्मके उदयसे । तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्च जीव कैसे होता है ? तिर्यञ्चगतिनामकर्मके उदयसे । जीव एकेन्द्रिय आदि कैसे होता है ? क्षायोपशमिकलब्धिसे । जीव मतिज्ञानी कैसे होता है ? क्षायोपशमिकलब्धिसे । इग तरह जिस मार्गणावाला जीव जिस कर्मके उदय या क्षयोपशम आदिमे होता है उराका वैसा कथन किया गया है ( इम अनुयोगद्वार में ९१ सूत्र है ) | तक रहता है ? कम २ एक जीवकी अपेक्षा कालानुगम - - नरकगति में नारकी जीव कितने काल तक रहता है ? कम-से-कम दम हजार वर्ष तक और अधिक-से-अधिक तेतीस सागरकाल तक । भवनवामी देवोमें एक जीव कितने काल से-कम दस हजार वर्ष तक और अधिक से अधिक कुछ अधिक एक सागरोपम काल तक । जीव काययोगी कितने काल तक रहता रहता है ? कम-मे-कम अन्तर्मुहूर्तकाल तक और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल तक । इस प्रकार २१६ सूत्रोके द्वारा कालका विवेचन किया गया है । जीवट्टणमे जो कालका कथन किया गया है वह गुणस्थानोकी अपेक्षा से है और यहाँ मार्गणास्थानोकी अपेक्षासे है | यही दोनोमें अन्तर है । ३ एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुगम -- नरकगति में नारको जीवका अन्तर काल कितना है ? कम-मे-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक असख्यात पुद्गल - परिवर्तन प्रमाणकाल । क्योकि कोई जीव नरकसे निकलकर मनुष्य या तिर्यञ्च - पर्यायमें उत्पन्न हो और तत्काल मरण करके पुन नरकमें जन्म ले लेता है । इसतरह उसकी नारकी पर्याय छूट कर पुन नारकी पर्याय प्राप्त करनेके बीच में केवल अन्तर्मुहूर्त कालका अन्तर रहता है । और कोई अधिक-से-अधिक उक्त काल तक नरकसे बाहर रहकर पुन, नरकमें चला जाता है । इसतरह मार्गणाओ - की अपेक्षा १४१ सूत्रोके द्वारा अन्तर कालका कथन किया गया है ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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