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________________ छक्खडागम ९१ है । कितने ही जीव मिथ्यात्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित निकलते हैं । कितने ही जीव सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर मिथ्यात्वसहित निकलते हैं । कितन ही जीव सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर मासादनसम्यक्त्वमहित निकलते है, इत्यादि । सूत्र ७६ से २०२ तक यह बतलाया है कि किस गतिसे किस गुणस्थानके माथ निकलकर जीव किन-किन गतियोमे जन्म ले सकता है । जैसे मिथ्यादृष्टि और सासादनमम्यग्दृष्टि जीव नरकसे निकल कर तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमे जन्म लेते है | और सम्यग्दृष्टि नारकी नरकमे निकल कर मनुष्यगतिमें ही जन्म लेता है, इत्यादि । सूत्र २०३ से २४३ तक बतलाया है कि किस गतिमे निकल कर जीव किस गतिमें जन्म लेता है और वहाँ कहाँ तक उन्नति कर मकता है । जैसे, मातवे नरकसे निकल कर नारकी जीव तिर्यञ्चगतिमं ही जन्म लेता है और वहाँ किसी तरह की उन्नति नही कर सकता । मिथ्यादृष्टिका मिध्यादृष्टि ही बना रहता है । इस तरह प्रत्येक नरकसे तथा प्रत्येक गतिसे निकले हुए जीवोके सम्वन्धमे विस्तार - से कथन किया गया है । चूलिका में २४३ सूत्र है और पूरी जीवस्थान चूलिकामे सूत्रोकी सख्या ४६ + ११७ + २ + २ + २ + ४४ + ४३ + १६ + २४३ = ५१७ है । चूलिकाके माथ ही जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है | इस खण्ड में जीवके स्थानोका जो वर्णन जिस ढगसे किया गया है, उसका आभास अन्यत्र नही मिलता । प्रथम तो जिन आठ अनुयोगोके द्वारा जीवका विवेचन किया गया है, उन अनुयोगोके नाम सत्, सख्या आदि भले ही अन्यत्र व्यवहृत होते हो, किन्तु उनके द्वारा वस्तु विवेचनकी परम्परा सम्भवतया महावीर भगवानकी मौलिक देन है । जीव और कर्मके सम्बन्धमे जितना विचार उन्होने किया था, शायद अन्य किसी धर्मप्रवर्तकने नही किया था । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 'जीवद्वाण' है । उक्त आठ अनुयोगोका निर्देश अनुयोगद्वार मूत्रमे मिलता है । अत अनुयोगोके द्वारा वस्तुविवेचनाकी परम्परा अखण्ड जैन परम्पराको सम्मत रही 1 किन्तु जिस तरह आठ अनुयोगोके द्वारा ओघ और आदेगसे जीवका कथन जीवट्ठाणमे किया गया है, श्वेताम्बर साहित्यमे नही किया गया । हाँ, चतुर्थ कर्म १ 'से कि त अणुगमे ? नवविहे पण्णत्ते, त जहा - सतपयपरूवणया १टव्वपमाण २ च खित्त ३ फुसणा ४ य, कालो य ५, अंतर ६, भाग ७, भाव ८, अप्पाबहु चैव - अनु०, म० ८० ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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