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________________ ८६ जैनमाहित्यका इतिहास ज्ञानका किना, दर्शनका नागना, मुग-गुसका अनुभवन गगना, मोहित करना, आदि कार्य करने में समर्थ होने है उन्हें कार्ग कहते हैं । इन आठो को कारण ही जीव समाग्मे भ्रमण करता है। इन आठ लागामेगे भी ज्ञानावरणीय ' नामकी पाच उत्तरप्रतिया है-- मतिज्ञानावरणीय, अतशानावरणीय, अधिमानावरणीय और मन पयंगज्ञानावरणीय और कंवलज्ञानावरणीय । गति आदि पान जान है, अन जान भावरण करने वाले जानापरण भी पान प्रकार।गी तरह दर्गनी तानं वाले दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रतिया है। बानीयागंगी दो प्रनिगा है। मोहनीयकर्मके दो भेद है-नगाहनीय और नान्निमोहनीग । आम, आगम भीर पदार्योसे रुचि या श्रद्धाका दर्शन नहत है । उगवन की जा मोहित करता है अर्थात् विपरीत नार दता है उग दर्शनमोहनीयामाहते हैं। मनमो उदगमें जो आप्त नहीं है उगमे आप्तबुद्धि और लूटे पसायोंग गन्य पार्ग बुद्धि होती है । उनकी तीन प्रतिगा है- मम्मात्य, गिन्यान्न और गम्यमिथ्यात्व । पागकार्यास निवृत्त होनेका नारिन कहते हैं । उग नारिको आनछादित करने वाले कर्मको नारियमोहनीय पहने है । नारिणमोहनीयके दो भेद होते है---पाय वेपनीय और ना ऊपायवेदनीय । कपागवेनीया १६ भेद है और नोकपायवैदनीगके नी भंद है । उग तरह मोहनीयागकी २८ प्रगतिया है। आयुकसकी चार प्रतियां है--नरकासु, तिर्यञ्नायु, मनुयाय और दवायु नामामकी ९३ प्रतिमा है । गोयामी दो प्रकृतियां है--उच्नगो और नीनगोन । अन्तरायकर्मी पनि प्रकृतियाँ है । उस तरह आठ कमांगी ५+ ' +२+२८ + ४ + ९३ . २ + ५---१४८ प्रकृति होती है । कर्मप्रकृतियो के इन निरुपणके साथ प्रतिगमुलीनन नूलिका गमाप्त हो जाती है । इम चूलिकामे ४६ गून है । उसके पात् स्थानगमुत्तीनन नाममी चूलिका आरम्भ होती है। , घट्स०, पु. ६, पृ० १४ । २. वही, पृ०३। ३. वही, पृ. ३४। ४. वही, प० ३७। १. वहीं, पु० ६, पृ० ४८ । ६ वही, पृ० ४९ । ७. वही, पृ० ७७ । ८ वही, पृ० ७८ । ९ 'पत्तो ठाणममुक्कितण वणइम्मायो ।॥१॥ वही, पृ० ७९ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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