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________________ जैनसाहित्य और इतिहास यापनीय संघ के पास थी । क्यों कि विजयोदया टीका में आगमोंके जो उद्धरण दिये गये हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्योंके त्यों नहीं, कुछ पाठ-भेदके साथ मिलते हैं । કર્ अचेलकताकी चर्चा में यापनीयत्व जिस ४२७ नं० की गाथाकी टीकापरसे पं० सदासुखजीने टीकाकारको श्वेतांबरी करार दिया है, वह यह है ____________ आचेलक्कुद्देसियसेजाहररायपिंडकरियम्मे । वदजे पडिकम्मणे मासं पज्जो सवणकप्पो || इस गाथामें दश प्रकारके श्रमणकल्प अर्थात् श्रमणों या जैन साधुओंके आचार गिनाये हैं, उनमें सबसे पहला श्रमणकल्प अचेलक्य या निर्वस्त्रता है । साधुओंको क्यों नग्न रहना चाहिए, और निर्वस्त्रता में क्या क्या गुण हैं, वह कितनी आवश्यक है, इस बातको टीकाकारने खूब विस्तार के साथ लगभग दो पेजमें स्पष्ट किया है और उसका बड़े जोरों से समर्थन किया है । उसके बाद शंका की है कि यदि ऐसा मानते हो, अचेलकताको ही ठीक समझते हो, तो फिर पूर्वागमों में जो वस्त्र पात्रादिका ग्रहण उपदिष्ट है, सो कैसे' ? पूर्वागमों में वस्त्रपात्रादि कहाँ कहाँ उपदिष्ट हैं, इसके उत्तर में आगे उन पूर्वामोसे नाम और स्थानसहित अनेक उद्धरण दिये हैं । जिन आगमों के वे उद्धरण हैं, उनके नामोंसे और उन उद्धरणों का जो अभिप्राय है, उससे साफ समझ में आ जाता है कि वे कोई दिगम्बर सम्प्रदाय के आगम या शास्त्र नहीं हैं बल्कि वही हैं जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उपलब्ध हैं और थोड़े से पाठ भेदके साथ यापनीय संघ में माने जाते थे । अक्सर ग्रन्थकार किसी मतका खंडन करने के लिए उसी मतके ग्रन्थोंका भी हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्तको पुष्ट करते हैं । परन्तु इस टीका में ऐसा नहीं है । इसमें तो टीकाकारने अपने ही आगमों का हवाला देकर अचेलकता सिद्ध की है और बतलाया है कि अपवादरूपसे अवस्था - विशेष में ही वस्त्रका उपयोग किया जा सकता है, सदा नहीं । १ अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तथा ( तत्कथं ? )
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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