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________________ ४४ जैनसाहित्य और इतिहास यापनीय संघके साहित्यकी एक बड़ी भारी उपयोगिता यह है कि जैनधर्मका तुलनात्मक अध्ययन करनेवालोंको उससे बड़ी सहायता मिलेगी। दिगम्बर-श्वेताम्बर मत-भेदोंके मूलका पता लगानेके लिए यह दोनोंके बीचका और दोनोंको परस्पर जोड़नेवाला साहित्य है और इसके प्रकाशमें आये बिना जैनधर्मका प्रारम्भिक इतिहास एक तरहसे अपूर्ण ही रहेगा। यापनीय सम्प्रदायका स्वरूप मैंने अपने देर्शनसार-विवेचना और उसके परिशिष्टमें यापनीयोंका विस्तृत परिचय प्रमाणोंके सहित दिया है। यहाँ मैं उसकी पुनरावृत्ति न करके सारमात्र लिख देता हूँ, जिससे इस लेखका अग्रिम भाग समझनेमें कोई असुविधा न हो। ___ ललितविस्तराके कर्ता हरिभद्रसूरि, घट्दर्शनसमुच्चयके टीकाकार गुणरत्नसूरि और षट्प्राभृतके व्याख्याता श्रुतसागरसूरिके अनुसार यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे, मोरकी पिच्छि रखते थे, पाणितलभोजी थे, नग्न मूर्तियाँ पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्म-लाम' देते थे। ये सब बातें तो दिगम्बरियों जैसी थीं, परन्तु साथ ही वे मानते थे कि स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष हो सकता है, केवली भोजन करते हैं और सग्रन्थावस्था और परशासनसे भी मुक्त होना सम्भव है। इसके सिवाय शाकटायनकी अमोघवृत्तिके कुछ उदाहरणोंसे मालूम होता है कि यापनीय संघमें आवश्यक, छेद-सूत्र, नियुक्ति और दशवैकालिक आदि ग्रन्थोंका पठन-पाठन होता था, अर्थात् इन बातोंमें वे श्वेताम्बरियोंके समान थे। १-२ देखो जैनहितेषी भाग १३ अंक ५-६ और ९-१० । ३ " या पंचजैनाभासरंचलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च । ".--घटप्राभृतटीका पृष्ठ ७९ । श्रुतसागरके इस वचनसे मालूम होता है कि यापनीयोंद्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें नग्न होती थीं क्योंकि उनके विश्वासके अनुसार यापनीय पाँच जैनाभासोंके अर्न्तगत हैं । ४ एतकमावश्यकमध्यापय । इयमावश्यकमध्यापय ।-अमोघवृत्ति १-२-२०३-४ भवता खलु छेदसूत्र वोढव्यम् । नियुक्तिरधीष्व । नियुक्तिरधीते । ४-४-१३३-४० कालिकसूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः । ३-२-४७ अथो क्षमाश्रमणैस्ते शानं दीयते १-२-२०१
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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