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________________ ४२ जैनसाहित्य और इतिहास आचार्योंको अनेक भूमि-दानादि किये थे। प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने अपनी ललितविस्तरामें यापनीयतंत्रका सम्मान-पूर्वक उल्लेख किया है । श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायन (पाल्यकीर्ति ) जैसे सुप्रसिद्ध वैयाकरण इस सम्प्रदायमें उत्पन्न हुए हैं। पउमचरिउ और अरिष्टनेमिचरिउके कर्ता अपभ्रंश भाषाके महाकवि स्वयंभू और त्रिभुवन स्वयंभू भी इसी सम्प्रदायके मालूम होते हैं। ___ इस संघका लोप कब हुआ और किन किन कारणोंसे हुआ, इन प्रश्नोंका उत्तर देना तो बहुत परिश्रम-साध्य है, परंतु अभी तककी खोजसे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दि तक यह सम्प्रदाय जीवित था। कागबाड़ेके श० सं० १३१६ (वि० सं० १४५१) के शिलालेखमें, जो जैनमन्दिरके भौहिरेमें है, यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रके समाधि-ले. खोंका उल्लेख है। इनके गुरु नेमिचन्द्रको तुलुवराज्यस्थापनाचार्यकी उपाधि दी हुई है, जो इस बातकी द्योतक है कि वे एक बड़े राज्यमान्य व्यक्ति थे और इसलिए संभव है कि उनके बाद भी सौ पचास वर्ष तक इस सम्प्रदायका अस्तित्व रहा हो। यापनीय साहित्यका क्या हुआ ? बेलगाँवके ' दोड्ड बस्ति' नामक जैनमन्दिरकी श्रीनेमिनाथकी मूर्तिके नीचे एक खंडित लेखं है, जिससे मालूम होता है कि उक्त मन्दिर यापनीय संघके किसी पारिसय्या नामक व्यक्तिने शक ९३५ (वि० सं० १०७० ) में बनवाया था और आजकल उक्त मन्दिरकी यापनीयोंद्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरियोंद्वारा पूजी जाती है। जिस तरह यापनीय संघकी उक्त प्रतिमा इस समय दिगम्बर संप्रदायद्वारा मानी-पूजी जाती है, क्या आश्चर्य है जो उनके कुछ साहित्यका भी समावेश उसके साहित्यमें हो गया हो ! यापनीय संघकी प्रतिमायें निर्वस्त्र होती हैं, इसलिए १ श्रीहरिभद्रसूरिका समय आठवीं शताब्दि है । २ देखो प्राचीन लेखमाला भाग १ पृ० ६८-७२ । ३ देखो बाम्बे यू० जर्नलके मई १९३३ के अंकमें प्रो० ए० एन० उपाध्याय एम० ए० का ' यापनीय संघ ' नामक लेख और जैनदर्शन वर्ष ४ अंक ७ में उसका अनुवाद । ४ देखो जैनदर्शन वर्ष ४, अंक ७
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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