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________________ आराधना और उसकी टीकायें ३१ काओंका परिचय १ विजयोदया - यह टीका छप चुकी है। इसके कर्त्ता अपराजितसूरि हैं जो चन्द्रनन्दि महाकर्मप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदवेसूरिके शिष्य थे, आरातीय आचार्य के चूड़ामणि थे, जिनशासनका उद्धार करने में धीर वीर तथा यशस्वी थे और नागनन्दि गणिके चरणों की सेवासे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था । श्रीनन्दिगणिकी प्रेरणा से उन्होंने यह विजयोदया टीका लिखी थी । " चन्द्रनन्दिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यशिष्येण आरातीयसूरिचूलामणिना नागनन्दिगणिपादपद्मोपसेवाजातमतिलवेन वलदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रसरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिना वचोदितेन रचिता आराधनाटीका श्री विजयोदया नाम्ना समाप्ता । "" पं० आशाधरजीने अपने मूलाराधनादर्पण में अनेक स्थलोंपर अपराजित सूरिका ' श्रीविजयाचार्य' नामसे उल्लेख किया है और अनगारधर्मामृतटीका ( पृ० ६७३ ) में भी एक जगह लिखा है, ' एतच्च श्रीविजयाचार्यविरचितसंस्कृतमूलाराधनटीकायां सुस्थितसूत्रे विस्तरतः समर्थितं दृष्टव्यम् । इससे जान पड़ता है कि अपराजितसूरि ' श्रीविजयाचार्य ' भी कहलाते थे । विजयोदया नाम भी इसी लिए रक्खा गया है । "> अपराजितसूरि भी यापनीयसंघ के थे । इस विषय में अब कोई सन्देह नहीं रह गया है । क्योंकि उन्होंने ' दशवैकालिक ' सूत्र पर भी विजयोदया नामकी टीका लिखी थी जिसका उल्लेख ११९७ वीं गाथाकी टीकामें वे स्वयं इस प्रकार करते हैं, " दशवैकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । ” अर्थात् उद्गमादि दोषों का वर्णन दशवैकालिककी विजयोदया कामें किया है, इसलिए अब उसे नहीं किया जाता । यह बतलाने की जरूरत नहीं कि ' दशवैकालिक ' प्रसिद्ध श्वेताम्बर सूत्रग्रंथ है और उसे यापनीय संघ भी मानता था । पं० सदासुखजीके सामने वचनिका लिखते समय यही टीका मौजूद थी । इस लिए वे ४२७ वीं गाथाकी वचनिकामें लिखते हैं, " इनिका विशेष बहु ज्ञानी होइ सो आगमके अनुसारि जाणि विशेष निश्चय करो । बहुरि इस ग्रन्थकी टीकाका १ देखो गाथा नं० ४४, ५९५, ६८१, ६८२, १७१२, १९९९ की टीका ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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