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________________ जैनसाहित्य और इतिहास हजार श्लोक प्रमाण टीका तो वीरसेन स्वामीकी है और शेष चालीस हजार जिनसेन स्वामीकी | बीस हजार टीका लिख चुकनेपर गुरुका स्वर्गवास हो गया और तब शिष्यने उसे पूरा किया । जयधवला टीकाको जिनसेनस्वामीने ' वीरसेनीया टीका' भी लिखा है जो कि उनके गुरुके कर्तृत्वको प्रकट करती है । उसका एक तिहाई भाग तो गुरुकृत है ही, शेष भाग भी उन्हींके आदेश और सूचनाओंके अनुसार लिखा गया है । उक्त दोनों टीका ग्रन्थ राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष ( प्रथम ) के समय में रचे गये थे और अमोघवर्षका एक नाम ८ धवल या ' अतिशय धवल' भी था, इसलिए अनुमान होता है कि इनका नामकरण उन्हीं के नामको चिरस्थायी करने के लिए किया गया होगा । , ५०४ धवला और जयधवला टीकाओंके विषय में इससे अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं मालूम होती, क्योंकि धवलाका प्रकाशन हो रहा है, चार खंड प्रकाशित भी हो चुके हैं और जयधवला के प्रकाशनका कार्य शुरू हो गया है । लगभग हजार वर्ष तक मूडबिद्रीके भंडार में कैद रहने के बाद अब ये टीकायें सर्वसाधारण के नेत्रपथ में आ रही हैं । इन तीन ग्रन्थोंके सिवाय वीरसेन स्वामीकी और किसी रचनाका पता नहीं । संभव यही है कि न होगी । क्योंकि पिछली दो टीकायें ही ९२ हजार श्लोक परिमित हैं और एक मनुष्यके द्वारा इतनी रचनाका होना भी कम नहीं है । जिनसेन स्वामी ये भी अपने गुरुके ही समान् महान् विद्वान् और उनके सच्चे उत्तराधिकारी सिद्ध हुए । गुणभद्र भदन्तने ठीक ही कहा है कि जिस तरह हिमालय से गंगाका, सर्वज्ञके मुँहसे दिव्य ध्वनिका और उदयाचलसे भास्करका उदय होता है उसी तरह वीरसेन से जिनसेनका उदय हुआ । ' जयधवला की प्रशस्ति में स्वयं जिनसेन स्वामीने अपना परिचय बड़ी ही सुन्दर आलंकारिक शैलीसे दिया है- १ - अभवदिव हिमाद्रेर्देवसिन्धुप्रवाहो, ध्वनिरिव सकलशात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो, मुनिरनु जिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ॥ - उ० पु० प्र०
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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