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________________ धनपाल नामके तीन कवि ४६९ संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंपर इनका असाधारण अधिकार था । सीयकदेवने जिस समय (वि० स० १०२९ में ) राष्ट्रकूटोंकी राजधानी मान्यखेटको लूटा था, उस समय इन्होंने अपनी छोटी बहिन सुन्दरीके लिए 'पाइअलच्छी नाममाला' (प्राकृत-लक्ष्मीनाममाला) नामक कोशकी रचना की थी। उसके बाद राजा भोजके जिनागमोक्त कथा सुननेके कुतूहलको मिटानेके लिए 'तिलक-मंजरी' नामक गद्यकाव्य लिखा, जो न केवल जैनसाहित्यमें बल्कि समग्र संस्कृत-साहित्यमें एक बेजोड़ रचना है । अपने छोटे भाई शोभनमुनिकृत संस्कृत स्तोत्रपर एक संस्कृतटीका भी इन्होंने लिखी है जिसके अन्तमें लिखा है-तस्यैव ज्येष्ठभ्रातुः पण्डितधनपालस्य ।' इसके सिवाय ऋष:-पंचासिका ( प्राकृत ), महावीरस्तुति और सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह ( अपभ्रंश भाषा) नामकी कुछ फुटकर रचनायें भी इनकी मिलती हैं। महाकवि धनपाल श्वेताम्बरसम्प्रदायके अनुयायी थे और उनके भाईने भी इसी सम्प्रदायकी दीक्षा ली थी। प्रभावकचरित आदि ग्रन्थोंमें धनपालके जैन होनेकी विस्तृत कथा मिलती है। ३ पल्लीवाल धनपाल-धनपाल नामके एक और कविका पता लगा है जिन्होंने महाकवि धनपालके प्रसिद्ध गद्य-काव्य ' तिलकमंजरी' के आधारसे 'तिलकमंजरी-कथा-सार' नामका ग्रन्थ लिखा है। उसके प्रारंभमें आदिनाथ भगवान् और भारतीकी स्तुति करके महाकवि धनपालको नमस्कार किया गया है और फिर कहा है कि उनकी विज्ञानगुम्फित और कर्णस्थित तिलकमंजरी किसको अलंकृत नहीं करती ? भ्रमरके समान मैं उसीका रस लेकर संक्षेपमें कुछ मधु उद्गिरण करूँगा। इसमें कथानक वही है, अर्थ भी प्रायः वही है, परन्तु रसौचित्यके खयालसे किया हुआ कुछ नवीन वर्णन भी है। १ देखो, पृ० ३२७ की टिप्पणीमें उद्धत गाथा ।। २-३ ये दोनों रचनायें जैनसाहित्यसंशोधक वर्ष ३ अंक ३ में प्रकाशित हो चुकी हैं। ४-श्रीनाभेयः श्रियं दिश्याद्यस्यांशतटयोर्जटा । भेजुर्मुखाम्बुजोपान्तभ्रान्तभृङ्गावलिभ्रमम् ॥ १॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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