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________________ आचार्य शुभचन्द्र और उनका समय ( सर्ग २९ ) में नीचे लिखे दो श्लोक इस प्रकार मिलेउक्तं च श्लोकद्वयं समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधनं स तु कुंभकः ॥ यत्कोष्ठादतियत्नेन नासा ब्रह्मपुरातनैः । बहिःप्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मृतः ।। और यही श्लोक हेमचन्द्रके योगशास्त्रके पाँचवें प्रकाशमें नं० ६ और ७ पर मौजूद हैं । सिर्फ इतना अन्तर है कि योगशास्त्रमें 'नाभिमध्ये' की जगह 'नाभिपद्म' और 'पुरातनैः' की जगह 'पुराननैः ' पाठ है। __ इससे यह अनुमान होता है कि ज्ञानार्णव योगशास्त्रके बादकी रचना है और उसके कर्त्ताने इन श्लोकोंको योगशास्त्र परसे ही उठाया है । परन्तु हमें इस विषयमें मुद्रित प्रतिपर विश्वास न हुआ और हमने ज्ञानार्णवकी हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज की। बम्बईके तेरहपन्थी जैनमन्दिरके भण्डारमें ज्ञानार्णवकी एक १७४७ साईजकी हस्तलिखित प्राचीन प्रति है, जिसके प्रारम्भके ३४ पत्र (स्त्रीस्वरूपप्रतिपादक प्रकरणके ४६ वे पद्य तक ) तो संस्कृत टीकासहित हैं और आगेके पत्र बिना टीकाके हैं । परन्तु उनके नीचे टीकाके लिए जगह छोड़ी हुई है । टीकाकर्ता कौन हैं, सो मालूम नहीं होता । वे मंगलाचरण आदि कुछ न करके इस तरह टीका शुरू कर देते हैं___ओं नमः सिद्धेभ्यः । अहं श्रीशुभचन्द्राचार्यः परमात्मानमव्ययं नौमि नमामि कि भूतं परमात्मानं अजं जन्मरहितं पुनः कि भूतं परमात्मानं अव्ययं विनाशरहितं पुनः कि भूतं परमात्मानं निष्ठितार्थ निष्पन्नार्थ पुनः कि भूतं परमात्मानं ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेषप्रभवानन्दनन्दितं ज्ञानमेव लक्ष्मीस्तस्या योऽसौ घनाश्लेषं निविड़ालेषस्तस्मात् प्रभव उत्पन्नो योऽसौ आनन्दस्तेन नन्दितम् ।” इस प्रतिके शुरूके पत्रोंके ऊपरका हिस्सा कुछ जल-सा गया है और कहीं कहींके कुछ अंश झड़ गये हैं । प्रारंभके पत्रकी पीठपर कागज चिपकाकर बड़ी सावधानीसे मरम्मत की गई है। पूरी प्रति एक ही लेखककी लिखी हुई मालूम होती है । यद्यपि ग्रन्थान्तमें लिपिकर्ताका नाम तिथि, संवत् आदि कुछ भी नहीं है, फिर भी हमारे अनुमानसे वह डेढ़-दो सौ वर्षसे इधरकी लिखी हुई नहीं है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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