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________________ ४०२ जैनसाहित्य और इतिहास शिलालेखोंमें जिनमें वादिराजसूरिकी बेहद प्रशंसा की गई है, इसका उल्लेख अवश्य होता । परन्तु जान पड़ता है तब तक इस कथाका अविर्भाव ही न हुआ था। ___ इसके सिवाय एकीभावके जिस चौथे पद्यका आश्रय लेकर यह कथा गढ़ी गई है, उसमें ऐसी कोई बात ही नहीं है जिससे उक्त घटनाकी कल्पना की जाय । उसमें कहा है कि जब स्वर्गलोकसे माताके गर्भमें आनेके पहले ही आपने पृथ्वीमंडलको सुवर्णमय कर दिया था, तब ध्यानके द्वारा मेरे अन्तरमें प्रवेश करके यदि आप मेरे इस शरीरको सुवर्णमय कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं है । यह एक भक्त कविकी सुन्दर और अनूठी उत्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपनेको कर्मोकी मलिनतासे रहित सुवर्ण या उज्ज्वल बनाना चाहता है । आगे ५, ६, ७ वें पद्योंमें भी इसी तरहके भाव हैं : जब आप मेरी चित्तशय्यापर विश्राम करेंगे, तो मेरे क्लेशोंको कैसे सहन करेंगे? आपकी स्याद्वाद-वापिकामें स्नान करनेसे मेरे दुःख-सन्ताप क्यों न दूर होंगे ? जब आपके चरण रखनेसे तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं तब सर्वांग रूपसे आपको स्पर्श करनेवाला मेरा मन क्यों कल्याणभागी न होगा ? आदि । __ सम्राट हर्षवर्धनके समयके मयूर कविके विषयमें भी जो महाकवि वाणके ससुर और सूर्यशतक नामक स्तोत्रके कर्ता हैं एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है। मम्मटकृत काव्यप्रकाशके टीकाकार जयरामने लिखा है कि मयूर कवि सौश्लोकोंसे सूर्यका स्तवन करके कुष्ठ रोगसे मुक्त हो गया । सुधासागर नामके दूसरे टीकाकारने लिखा है कि मयूर कवि यह निश्चय करके कि या तो कुष्ठसे मुक्त हो जाऊँगा या प्राण ही छोड़ दूंगा हरद्वार गया और गगा-तटके एक बहुत ऊँचे झाड़की शाखापर सौ रस्सियोंवाले छींकमें बैठ गया और सूर्यदेवकी स्तुति करने लगा। एक एक पद्यको कहकर वह छींकेकी एक एक रस्सी काटता जाता था। इस तरह करते करते सूर्यदेव सन्तुष्ट हुए और उन्होंने उसका शरीर उसी समय निरोग और सुन्दर कर दिया। काव्यप्रकाशके तीसरे टीकाकार जगन्नाथने भी लगभग यही बात १ " मयूरनामा कविः शतश्लोफेन आदित्यं स्तुत्वा कुष्ठानिस्तीर्णः इति प्रसिद्धिः।। २ पुरा किल मयूरशर्मा कुष्ठी कविः क्लेशमसहिष्णुः सूर्यप्रसादेन कुष्ठान्निस्तररामि प्राणान्वा त्यजामि इति निश्चित्य हरिद्वारं गत्वा गंगातटे अत्युच्चशाखावलम्बी शतरज्जुशिक्यं अधिरूढः सूर्यमस्तौधीत । अकरोच्चैकेकपद्यान्ते एकैकरज्जुविच्छेदं । एवं क्रियमाणे काव्यतुष्टो रवि सद्य एव निरोगां रमणीयां च तत्तनुं अकार्षीत । प्रसिद्धं तन्मयूरशतकं सूर्यशतकापरपर्यायमिति ।"
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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