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________________ ३९८ जैनसाहित्य और इतिहास व्याकरणकी टीका ) के कर्ता दयांपाल मुनिके सतीर्थ या गुरुभाई थे । वादिराज यह एक तरहकी पदवी या विशेषण है जो अधिक प्रचलित होनेके कारण नाम ही बन गया जान पड़ता है परन्तु वास्तव नाम कुछ और ही होगा, जिस तरह वादीभसिंहका असल नाम अजितसेन था। समकालीन राजा चौलुक्यनरेश जयसिंहदेवकी राजसभामें इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यात वादी गिने जाते थे । मल्लिषेण-प्रशस्तिके अनुसार जयसिंहद्वारा ये पूजित भी थे'सिंहसमय॑पीठविभवः ।' जयसिंह ( प्रथम ) दक्षिणके सोलंकी वंशके प्रसिद्ध महाराजा थे । पृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज, परमेश्वर, चालुक्यचक्रेश्वर, परमभट्टारक, जगदेकमल आदि उनकी उपाधियाँ थीं। इनके राज्यकालके तीससे ऊपर शिलालेख दानपत्र आदि मिल चुके हैं जिनमें पहला लेख श० सं० ९३८ का है और अन्तिम श० सं० ९६४ का । अतएव कमसे कम ९३८ से ९६४ तक तो उनका राज्य-काल निर्विवाद है । उनके पौष वदी द्वितीया श० सं० ९४५ के एक लेखमें उन्हें भोजरूप कमलके लिए चन्द्र, राजेद्र चोल ( परकेसरी वर्मा ) रूप हाथीके लिए सिंह, मालवेकी सम्मिलित सेनाको पराजित करनेवाला और चेर-चोल राजाओंको दण्ड देनेवाला लिखा है। वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित सिंहचक्रेश्वर या चौलुक्यचक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानी में ही निवास करते हुए श० सं० ९४७ की कार्तिक सुदी ३ को बनाया था। यह जयसिंहका ही राज्य-काल है । यह राजधानी लक्ष्मीका निवास थी और सरस्वतीदेवी ( वाग्वधू) की जन्मभूमि थी। १ हितैषिणां यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धा हितरूपसिद्धिः। वन्यो दयापालमुनिः स वाचा सिद्धस्सताम्मूर्द्धनि यः प्रभावैः ॥३८॥ म०प्र. २ सकलभुवनपालानम्रमूख़्ववद्धस्फुरितमुकुटचूडालीढ़पादारविन्दाः। मदवदखिलवादीभेन्द्रकुंभप्रभेदी गणभृदजितसेनो भाति वादीभसिंहः ॥ ५७ -म० प्र० ३ वादिराजकी एक पदवी · जगदेकमल्ल-वादि' है। क्या आश्चर्य जो उसका अर्थ ' जगदेकमल्ल ( जयसिंह ) का वादि' ही हो ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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