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________________ ३६२ जैनसाहित्य और इतिहास तीन प्रकारके मिथ्यातियोंके साथ मन, बचन, कायसे परिचय न रखनेका उपदेश दिया है । पहले प्रकारके मिथ्याती जैनधर्मसे विपरीत मुद्राके धारण करनेवाले तापस आदि हैं, दूसरे प्रकारके मिथ्याती वे द्रव्याजिनलिङ्गधारी हैं, जो अपनेको मुनि कहते हैं और बाहरसे आहती मुद्रा अर्थात् दिगम्बर मुद्राको भी धारण करते हैं, परन्तु अन्तरंगमें अवशी हैं-इन्द्रियों को नहीं जीतते हैं, और तीसरे प्रकारके मिथ्याती मठोंक स्वामी द्रव्यजिनलिंगधारी अर्थात् मठाधीश दिगम्बर मुनि हैं । इनके विषयमें कहा है कि ये म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करनेवाले हैं। ' तच्छायया आहेतगतप्रतिरूपेण ' पद देकर वे इस बातको भी स्पष्ट कर देते हैं कि वे वस्त्रधारी नहीं किन्तु अर्हन्त भगवानके समान दिगम्बर मुद्रा धारण करनेवाले ही थे। पं० आशाधरसे भी पहलेके ( वि० सं० १०९० ) श्रीसोमदेवसूरिने अपने यशस्तिलकचम्पूमें कहा है कि कलिकालमें जब कि चित्त चंचल हो गये हैं और शरीर अन्नका कीड़ा बन गया है यही आश्चर्य है कि अब तक भी कुछ लोग जिनरूप धारण करनेवाल मौजूद हैं। और जैसे जिनेन्द्रों के लेपादिसे बनाए हुए रूप (मूर्ति) पूज्य हैं उसी तरह पूर्वकालके मुनियोंकी छाया जैसे आजकलके मुनि पण्डितैभ्रष्टचारित्रैर्वटरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्भलं मलिनीकृतम् ।। भोः सम्यक्त्वाराधक त्यज मुश्च त्वम् । कम् , त्रिधा परिचयं मनसानुमोदनं वाचा कीर्तन कायेन संसर्ग च ! कैः सह, तकैः कुत्सितैस्तै स्त्रितयैः । कि विशिष्टैः, पुंदेहमीहै: पुरुषाकारमिथ्यात्वैः । तदुक्तम् ---- कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते ।। बाह्य': ( मनुस्मृति अ० ४ श्लोक ३० ) अप्याहु: पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान् । हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ।। १- काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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