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________________ ३५२ जैनसाहित्य और इतिहास ८८२ वी० नि० तक तो उसकी सार्वत्रिक प्रवृत्ति हो गई थी। ___ सुप्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र विक्रमकी आठवीं नवीं शताब्दिके विद्वान् हैं । उनके ' संबोध प्रकरण ' नामक ग्रन्थके ' गुर्वधिकार' के पढ़नेसे मालूम होता है कि उस समय चैत्यवास खूब फैल रहा था और उसके शिथिलाचारने उन्हें क्षुब्ध कर दिया था। वे लिखते हैं "ये कुसाधु चैत्यों और मठोंमें रहते हैं, पूजा करनेका आरम्भ करते हैं, देव-द्रव्यका उपभोग करते हैं, जिनमन्दिर और शालायें चिनवाते हैं, रङ्ग-विरङ्गे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं, विना नाथके बैलोंके सदृश स्त्रियोंके आगे गाते हैं, आर्यिकाद्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह तरहके उपकरण रखते हैं । जल, फल, फूल आदि सचित्त द्रव्योंका उपभोग करते हैं, दो तीन बार भोजन करते और ताम्बूल लवंगादि भी खाते हैं । "ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं । ज्योनारोंमें मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहारके लिए खुशामद करते और पूछनेपर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते। " स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरोंसे आलोचना-प्रतिक्रमण कराते हैं। स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र फुलेलका उपयोग करते हैं । " अपने हीनाचारी मृतक गुरुओंकी दाह-भूमिपर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियोंके समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणोंके गीत गाती हैं । " सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचनके बहाने विकथायें किया करते हैं।” ___“चेला बनाने के लिए छोटे छोटे बच्चोंको खरीदते, भोले लोगोंको ठगते, और जिन प्रतिमाओंको भी बेचते खरीदते हैं। __" उच्चाटण करते और वैद्यक, यंत्र, मंत्र, गंडा, तावीज आदिमें कुशल होते हैं। "ये सुविहित साधुओंके पास जाते हुए श्रावकोंको रोकते हैं, शाप देनेका भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलोंके लिए एक दूसरेसे लड़ मरते हैं।" १ यह ग्रन्थ अहमदाबादकी जैन-ग्रन्थ-प्रकाशक-सभाद्वारा वि० सं० १९७२ में प्रकाशित हुआ है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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