SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ जैनसाहित्य और इतिहास और नया, पुरानेका अनुधावन करनेवाला होनेपर भी, कुछ न कुछ नया अवश्य होता जाता है । इस तरह जब हजारों वर्ष बीत जाते हैं, तब कुछ विद्वान् ऐसे भी होते हैं, जो इस विकृत रूपको संशोधित करनेकी आवश्यकता अनुभव करते हैं और धर्मकी मूल प्रकृतिका अध्ययन करके तथा प्राचीन ग्रन्थोंको प्राप्त करके उनके सहारे धर्मके उसी प्राचीन स्वरूपको फिरसे प्रकट करनेका प्रयत्न करते हैं; परन्तु उसे सर्वसाधारण गतानुगतिक लोग नहीं मानते और इस कारण जो लोग उन्हें मानने लगते हैं उनका फिर एक जुदा ही सम्प्रदाय बन जाता है। इस तरहके प्रयत्न बार बार हुआ करते हैं और प्रत्येक बार वे सिवाय इसके कि एक और नये सम्प्रदायकी नीव डाल जावें, सबको अपना अनुयायी नहीं बना सकते । इस प्रकारके प्रयत्नोंसे एक लाभ भी होता है और वह यह कि प्रायः प्रत्येक धर्मके अनुयायी अपने धर्मके मूल और प्राचीन सिद्धान्तोंसे बहुत दूर नहीं भटकने पाते-उनके करीब करीब ही बने रहते हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकारके प्रयत्नोंसे उत्पन्न हुआ कोई सम्प्रदाय अपने धर्मके मूल स्वरूपको जैके तैसे रूपमें पा जाता हो । बीचका हजारों वर्षोंका लम्बा समय, मूल धर्मप्रवर्तकोंकी आज्ञाओं या उपदेशोंकी वास्तविक रूपमें और यथेष्ट संख्यामें अप्राप्ति, मूल उपदेशोंकी भाषापर पूरा अधिकार न होनेसे अर्थ-भेद होनेकी संभावना, और प्रयत्नकर्ताओंका भ्रान्तिप्रमादपूर्ण ज्ञान आदि अनेक कारण ऐसे हैं जो मूलस्वरूपको प्राप्त करनेमें बड़े भारी बाधक हैं । बहुतसे पन्थों या भेदोंकी सृष्टि धर्मगुरुओंके आपसके राग द्वेषसे और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायोंसे भी हुआ करती है । बहुतसे पन्थोंका इतिहास देखनेसे मालूम होता है कि वे बिल्कुल जरा जरासे मत-भेदोंके कारण जुदा हो गये हैं । यदि उनके प्रवर्तक ' समझौते' की ओर जरा भी झुकते तो जुदा होनेकी आवश्यकता ही न पड़ती । पर बेचारे 'समझौते' की कषाय-क्षेत्रोंतक पहुँच ही कहाँ है ? बहुतसे पन्थोंका जन्म अपने समयके किसी प्रभावशाली धर्मके आक्रमणसे अपने धर्मको डगमगाते देख, उसमें उस धर्मके अनुकूल परिवर्तन और संशोधन करने अथवा उनका अनुकरण करनेके कारण भी हुआ है । कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें अपने बुद्धि-वैभवसे अपने धर्ममें अनेक दोष मालूम होते
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy