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________________ साम्प्रदायिक द्वेषका एक उदाहरण भट्टारक श्रीभूषण संसारके सभी धर्मों में उनके प्रवर्तकोंके देहान्त होनेपर छोटेसे छोटे मतभेदोंके कारण समय समयपर अनेक पन्थ या सम्प्रदाय होते रहे हैं और धीरे धीरे उनमें परस्पर इतना द्वेष बढ़ गया है कि देख-सुनकर आश्चर्य होता है । हरएक सम्प्रदायके गुरु या आचार्य गृहस्थ न होकर प्रायः साधु संन्यासी हुआ करते हैं और सर्व साधारण लोगोंका यह विश्वास रहता है कि उनकी मनोभूमिका रागद्वेषमें फंसे हुए संसारी गृहस्थोंसे ऊँची होती है। आत्म-कल्याण और पर-कल्याणके लिए ही वे साधुवृत्ति धारण करते हैं, उनका निजी स्वार्थ कुछ नहीं होता। इस लिए वे जो कुछ कहते या लिखते हैं, वह कल्याणकारी ही होता है। परन्तु सम्प्रदाय-मोह एक ऐसी चीज है कि वह साधु और गृहस्थ दोनोंको ही अन्घा बना देती है और उनसे सभी कुछ अपकृत्य करा लेती है। इसके उदाहरणमें भट्टारक श्रीश्रीभूषण पेश किये जा सकते हैं जो सोजित्रा ( भरोंच ) की काष्ठासंघकी गद्दीके पट्टधर थे । सोजित्रामें मूलसंघ और काष्ठासंघ इन दोनों सम्प्रदायोंकी गद्दियाँ थीं जिनमेंसे मूलसंघकी तो अब भी है, परन्तु काष्ठासंघकी गद्दी उठ गई है । उसके अन्तिम भट्टारक बम्बईके कमाठीपुरामें अपनी एक चेलीके साथ रहते थे और ज्योतिष-वैद्यकका धंधा करते थे । लेखकको एक बार उनके दर्शन करनेका भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अवश्य ही दोनों सम्प्रदायोंके बीच श्रीभूषणके समयमें खूब द्वेष बढ़ रहा होगा, दोनों गद्दियोंमें खूब प्रतिस्पर्धा होगी और उसीके विस्फोटका पाठकोंका इस लेखमें परिचय मिलेगा। ___ बम्बईके तेरहपंथी दि० जैन मन्दिरके भंडारमें ७०० पत्रोंका एक प्राचीन और जीर्ण शीर्ण गुटका है जो अनुमानसे चार पाँच सौ वर्ष पहलेका लिखा हुआ है । इसमें बीसों ग्रन्थोंका सार भाग, बीसों सम्पूर्ण ग्रन्थ और सैकड़ों छोटे मोठे पाठ संग्रहीत हैं, जिनसे संग्रह करनेवालेकी रुचि, योग्यता और बहुश्रुतताका पता लगता
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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