SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाकवि पुष्पदन्त ३३३ सूत्रको लेकर मैंने कहा ।” __इसके आगेका घत्ता और प्रशस्ति स्वयं पुष्पदन्तकृत है जिसमें उन्होंने अपना परिचय दिया है। पूर्वोक्त पद्योंसे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि गन्धर्व कविने दिल्लीमें पानीपतके रहनेवाले बीसल साहु नामक धनीकी प्रेरणासे तीन प्रकरण स्वयं बना कर पुष्पदन्तके यशोधरचरितमें पीछेसे सं० १३६५ में शामिल किये हैं और कहाँ कहाँ शामिल किये हैं, सो भी यथास्थान ईमानदारीसे बतला दिया है । देखिए १ पहली सन्धिके चौथे कड़वककी 'चाएण कण्णु विहवेण इंदु' आदि पंक्तिके बाद आठवें कड़वकके अन्त तककी ८१ लाइने गन्धर्वरचित हैं जिनमें राजा मारिदत्त और भैरवकुलाचार्यका संलाप है । उनके अन्तमें कहा हैगंधव्वु भणइ मइं कियउ एउ, णिव-जोईसहो संजोयभेउ । अग्गइ कइरायपुष्फयंतु सरसइणिल उ । देवियहि सरूउ वष्णइ कइयणकुलतिल उ ।। अर्थात् गन्धर्व कहता है कि यह राजा और योगीश ( कालाचार्य ) का संयोग-भेद मैंने कहा । अब आगे सरस्वतीनिलय कविकुलतिलक कविराज पुष्पदंत ( मैं नहीं ) देवीका स्वरूप वर्णन करते हैं । २ पहली ही सन्धिके २४ वें कड़वककी 'पोढत्तणि पुटि पलटियंगु' आदि लाइनसे लेकर २७ वें कड़वक तककी ७९ लाइनें भी गन्धर्वकी हैं। इसे उन्होंने ७९ वीं लाइनमें इस तरह स्पष्ट किया हैजं वासवसेणिं पुव्व रइउ, तं पेक्खवि गंधव्वेण कहिउ अर्थात् वासवसेनने पूर्वमें (ग्रन्थ) रचा था, उसको देखकर ही यह गंधर्वने कही। १ श्रीवासवसेनके इस यशोधरचरितकी प्रति बम्बईमें (नं० ६०४ क ) मौजूद है । यह संस्कृतमें है । इसकी अन्तिम पुष्पिकामें 'इति यशोधरचरिते मुनिवासवसेनकृते काव्ये ... अष्टमः सर्गः समाप्त: ' वाक्य है । प्रारम्भमें लिखा है — प्रभंजनादिभिः पूर्वं हरिषेणसमन्वितैः, यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भाषितुम् ।' इससे मालूम होता है कि उनसे पूर्व प्रभंजन और हरिषेणने यशोधरके चरित लिखे थे। इन कविवरने अपने समय और कुलादिका कोई परिचय नहीं दिया है। परन्तु इतना तो निश्चित है कि वे गन्धर्व कविसे पहले हुए हैं । इस ग्रन्थकी एक प्रति प्रो० हीरालालजीने जयपुरके बाबा दुलीचन्दजीके भंडारमें भी देखी थी और उसके नोट्स लिये थे । हरिषेण शायद वे ही हों, जिनकी धर्मपरीक्षा ( अपभ्रंश) अभी डा० उपाध्येने खोज निकाली है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy