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________________ जैनसाहित्य और इतिहास नाके अनुसार वीर-निर्वाणके एक हजार वर्ष बाद कल्किकी मृत्यु हुई है और शकके ६०५ वर्ष पहले वीर-निर्वाण हुआ है । अतएव कल्किकी मृत्युका संवत् ३९५ ( शक ) होता है। __ कल्किकी मृत्युके बाद उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्ष तक धर्म-राज्य करनेका भी उल्लेख है और फिर कहा है कि उसके बाद क्रमशः दिनोंदिन काल-माहा. त्म्यसे धर्मका -हास होने लगा। जान पड़ता है कि अजिंतजयके धर्म-राज्यके कुछ ही समय बाद तिलोयपण्णत्तिकी रचना हुई होगी। बहुत बाद हुई होती तो उसमें अजितंजयके बादके अन्य राजाओंका भी उल्लेख किया जाता जैसा कि पहलेके राजाओंका किया गया है । बल्कि आश्चर्य नहीं जो अजिंतंजयके राज्य-कालमें ही यतिवृषभ मौजूद हों । उन्होंने देखा होगा कि दो वर्ष तक तो इस राजाने धर्म-राज्य किया, पर अब उसमें व्यत्यय आ गया। यदि हमारा यह अनुमान ठीक हो तो श० सं० ४०० के लगभग तिलोयपण्णत्तिका रचना-काल मानना चाहिए, और यह काल लोक-विभागके रचना-कालसे कुछ पीछे पड़ता है । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें तिलोयपण्णात्तिके अनुसार ही वीर-निर्वाणके ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानका अस्तित्व माना है। उसके बाद अर्हद्वलि हुए और फिर कुछ समय बाद ( तत्काल ही नहीं) माघनन्दि हुए । उनके स्वर्गवासके कुछ समय पीछे धरसेन हुए जिन्होंने भूतबलि-पुष्पदन्तको पढ़ाया और फिर भूतबलिने जिनपालितको । फिर एक गुणधरनामके आचार्य हुए जिनके शिष्य आर्यमंक्षु और नागहस्तिसे यतिवृषभने कषायप्राभृत पढ़ा। इन्द्रनन्दिको यह पता नहीं था कि धरसेन और गुणधरमेंसे कौन पहले हुआ और कौन पीछे क्योंकि उनके समक्ष उक्त आचार्योंके अन्वयको बतलानेवाले न तो आगम ही थे और मुनिजन । १-२ आर्य मंक्षु और नागहस्तिके कालका ठीक पता श्वेताम्बर-साहित्यसे नहीं लगता। तपागच्छ पट्टावलीमें वी० नि० ४६७ में आर्यमंगुको बतलाया है, और कल्पसूत्रकी अवचूरिमें नागहत्थि ( नागहस्ति) का समय वीर नि० संवत् ६३० वर्ष पाया जाता है । दोनोंके बीच काफी अन्तर है। ३ गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। १५१ ॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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