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________________ ३३० जैनसाहित्य और इतिहास संस्कृत पद्य नन्नकी प्रशंसाके हैं जो अनेक प्रतियोंमें हैं ही नहीं। इससे यही अनुमान करना पड़ता है कि ये सभी या अधिकांश पद्य भिन्न भिन्न समयोंमें रचे गये हैं और प्रतिलिपियाँ कराते समय पीछेसे जोड़े गये हैं। गरज यह कि 'दीनानाथधनं' आदि पद्य मान्यखेटकी लूटके बाद ही लिखा गया है और उसके बाद जो प्रतियाँ लिखी गई, उनमें जोड़ा गया है। निश्चय ही यह पद्य उसके पहले जो प्रतियाँ लिखी जा चुकी होंगी उनमें न होगा। ___ इस प्रकारकी एक प्रति महापुराणके सम्पादक डा० पी० एल० वैद्यको नाँदणी (कोल्हापुर ) के श्री तात्या साहब पाटीलसे मिली है जिसमें उक्त पद्य नहीं हैं ' । ८९४ के पहलेकी लिखी हुई इस तरहकी और भी प्रतियोंकी प्रतिलिपियाँ मिलनेकी संभावना है । एक और शंका 'महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण' शीर्षक लेख मैंने 'भाण्डारकर इन्स्टिटयूट' पूनाकी वि० सं० १६३० की लिखी हुई जिस प्रतिके आधारसे लिखा था उसमें प्रशस्तिकी तीन पंक्तियाँ इस रूपमें हैं पुप्फयंतकइणा धुयपंके, जइ अहिमाणमेरुणामकें । कयउ कव्वु भत्तिए परमत्थे, छसयछडोत्तर कयसामत्थें । कोहणसंवच्छरे आसाढए, दहमए दियहे चंदरुइरूढए । इसके ' छसयछडोत्तरकयसामत्थे ' पदका अर्थ उस समय यह किया गया था कि यह ग्रन्थ शकसंवत् ६०६ में समाप्त हुआ । परन्तु पीछे जब गहराईसे विचार किया गया तब पता लगा कि ६०६ संवत्का नाम क्रोधन हो ही नहीं सकता, चाहे वह शक संवत् हो, विक्रम संवत् हो, गुप्त संवत् हो, या कलचुरि संवत् हो । इसलिए उक्त पाठके सही होने सन्देह होने लगा। 'छसयछडोत्तर' तो खैर ठीक, पर ‘कयसामत्थे ' का अर्थ दुरूह हो गया । तृतीयान्त पद होनेके कारण उसे कविका विशेषण बनानेके सिवाय और कोई चारा नहीं था । यदि बिन्दी निकालकर उसे सप्तमी समझ लिया जाय, तो भी 'कृतसामर्थे ' का कोई अर्थ नहीं बैठता। अतएव शुद्ध पाठकी खोज की जाने लगी।। __ सबसे पहले प्रो० हीरालालजी जैनने अपने 'महाकवि पुष्पदन्तके समयपर १ देखो, महापुराण प्र० ख०, डा० पी० एल० वैद्य-लिखित भूमिका पृ० १७ । २ स्व० बाबा दुलीचन्दजीकी ग्रन्थ-सूचीमें भी पुष्पदन्तका समय ६०६ दिया हुआ है।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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