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________________ महाकवि पुष्पदन्त ३११ पतला और साँवला था । वे बिल्कुल कुरूप थे' परन्तु सदा हँसते रहते थे । जब बोलते थे तो उनकी सफेद दन्तपंक्तिसे दिशाएँ धवल हो जाती थीं । यह उनकी. स्पष्टवादिता और निरहंकारताका ही निदर्शन है, जो उन्होंने अपनेको शुद्ध कुरूप कहनेमें भी संकोच न किया । पुष्पदन्तमें स्वाभिमान और विनयशीलताका एक विचित्र सम्मेलन दीख पड़ता है । एक ओर तो वे अपनेको ऐसा महान् कवि बतलाते हैं जिसकी बड़े बड़े विशाल ग्रंथोंके ज्ञाता और मुद्दतसे कविता करनेवाले भी बराबरी नहीं कर सकते और सरस्वतीसे कहते हैं कि हे देवी, अभिमानरत्ननिलय पुष्पदन्तके बिना तुम कहाँ जाओगी-तुम्हारी क्या दशा होगी ? और दूसरी ओर कहते हैं कि मैं दर्शन, व्याकरण, सिद्धान्त, काव्य, अलंकार कुछ भी नहीं जानता, गर्भमूर्ख हूँ। न मुझमें बुद्धि है, न श्रुतसंग है, न किसीका बल है । __ भावुक तो सभी कवि होते हैं परन्तु पुष्पदन्तमें यह भावुकता और भी बढ़ी चढ़ी थी। इस भावुकताके कारण वे स्वप्न भी देखा करते थे । आदिपुराणके समाप्त हा जान पर किसी कारण उन्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा था, वे १ कसणसरीरे सुद्धकुरूवे मुद्धाएविगब्भसंभूवें । ११-उ० पु० २ णण्णस्स पत्थणाए कव्वपिसल्लेन पहसियमुहेण, णायकुमारचरित्तं रइयं सिरिपुष्फयंतेण ।।-णायकुमार च० पहसियतुडिं कइणा खंडें । -यशोधर चरित ३ सियदंतपंतिधवलीकयासु ता जंपइ वरवायाविलासु । ४ आजन्म (?) कवितारसैकधिषणा सौभाग्यभाजो गिरां, दृश्यन्ते कवयो विशालसकलग्रन्थानुगा बोधतः । किन्तु प्रौढनिरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदंतेन भोः, साम्यं विभ्रति (?) नैव जातु कविता शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः ॥-६६ वीं संधि ५ लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णावसे नीरसे, सालंकारवचोविचारचतुरे लालित्यलीलाधरे । भद्रे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ साम्प्रतं, कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदन्तं विना ॥ -८० वीं संधि ६ णहु महु बुद्धिपरिग्गहु णहु सुयसंगहु णउ कासुवि केरउ बलु ।-उ० पुक
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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