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________________ चामुण्डराय और उनके समकालीन आचार्य २९७ थे। इनमेंसे नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रसिद्ध गोम्मटसार और त्रिलोकसारके कर्ता हैं । वे स्वयं अपनेको अभयनन्दिका ही शिष्य लिखते हैं। वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि उनके ज्येष्ठ गुरुभाई थे और इस लिए उन्होंने एक दो जगह उनको भी गुरुतुल्य मानकर नमस्कार किया है और अपनेको उनका वच्छ ( वत्स ) या शिष्य भी कहा है। ये वीरनन्दि ही चन्द्रप्रभ महाकाव्यके कर्ता हैं। इन्होंने इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है कि मेरे गुरुका नाम अभयनन्दि था जो देशीयगणके आचार्य थे । अभयनन्दिके गुरु विबुध गुणनन्दि और प्रगुरु ( दादागुरु ) गुणनन्दि थे । १-इदि णेमिचंदमुणिणाणप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण । रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ।। - त्रि० सा० २–णमिऊण अभयणंदि सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥ ७८५-क० का० णमह गुणरयणभूसणसिद्धतामियमहद्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥ ८९६-क० का० वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । दसणचरित्तलद्धा सुसूयिया मिचंदेण ॥ ६४८-ल० सा० ३-बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतिर्मुनीनां गणभृत्समानः । सदग्रणीर्देशिगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥१॥ गुणग्रामाम्भोधेः सुकृतवसतेर्मित्रमहसामसाध्यं यस्यासीन्न किमपि महीशासितुमिव । स तच्छिष्यो ज्येष्ठः शिशिरकरसौम्यः समभवत् प्रविख्याता नाम्ना विबुधगुणनन्दीति भुवने ॥ २ ॥ मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धुभन्यलोकैकबन्धुः ॥ २ ॥ भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत्समानत्विषः शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् । स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तेः सतां संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचाः कुतर्कानुशाः ॥ चन्द्रप्रभचरित
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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