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________________ पद्मचरित और पउमचरिय ૨૮૨ उसमें कुछ श्रुत-निबद्ध था और कुछ आचार्यपरम्परागत था । जब विमलसूीर पूर्वोक्त नामावलीके अनुसार अपने ग्रन्थकी रचनामें प्रवृत्त हुए होंगे, तब ऐसा मालूम होता है कि उनके सामने अवश्य ही कोई लोक-. प्रचलित रामायण ऐसी रही होगी जिसमें रावणादिको राक्षस, वसा-रक्त-मांसका खाने-पीनेवाला और कुंभकर्णको छह छह महीने तक इस तरह सोनेवाला कहा है कि पर्वततुल्य हाथियोंके द्वारा अंग कुचले जाने, कानोंमें घड़ों तेल डाले जाने और नगाड़े बजाये जाने पर भी वह नहीं उठता था और जब उठता था तो हाथी भैंसे आदि जो कुछ सामने पाता था, सब निगल जाता था । उनकी यह भूमिका इस बातका संकेत करती है कि उस समय वाल्मीकि रामायण या उसी जैसी कोई राम-कथा प्रचलित थी और उसमें अनेक अलीक, उपपत्तिविरुद्ध और अविश्वसीय बातें थीं, जिन्हें सत्य, सोपपत्तिक और विश्वासयोग्य बनानेका विमलसूरिने प्रयत्न किया है । जैनधर्मका नामावलीनिबद्ध ढाँचा उनके समक्ष था ही और श्रुतिपरम्परा या आचार्यपरम्परासे आया हुआ कुछ कथासूत्र भी था । उसीके आधारपर उन्होंने पउमचरियकी रचना की होगी। उत्तरपुराणके कती उनसे और रविषेणसे भी बहुत पीछे हुए हैं, फिर उन्होंने इस कथानकका अनुसरण क्यों नहीं किया, यह एक प्रश्न है। यह तो बहुत कम संभव है कि इन दोनों ग्रन्थोंका उन्हें पता न हो और इसकी भी संभावना कम है कि उन्होंने स्वयं ही विमलसूरिके समान किसी लोकप्रचलित कथाको ही स्वतंत्र रूपसे जैनधर्मके साँचेमें ढाला हो क्योंकि उनका समय वि० सं० ९५५ है, १“ अरहंत-चकि-वासुदेव-गणितानुयोग-क्रमणिद्विदं वसुदेवचरितं ति । तथ्य य किंचि सुयनिबंद्धं किंचि आयरइ-परपरागएण आगतं । ततो अवधारितं मे ।" २ देखो आगे परिशिष्टमें पउमचरियकी नं० १०७ से ११६ तककी गाथायें । ३ महाकवि पुष्पदन्तने तो अपने उत्तरपुराणमें राम-कथाका प्रारंभ करते हुए वाल्मीकि और व्यासका स्पष्ट उल्लेख भी किया हैवम्मीयवासवयणिहिँ णडिउ, अण्णाणु कुमग्गकूवि पडिउ ।-६९ वी सन्धि ४ अलियं पि सव्वमेयं उववत्तिविरुद्धपच्चयगुणेहिं, नय सद्दहति पुरिसा हवंति जे पंडिया लोए ॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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