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________________ पद्मचरित और पउमचरिय २७३ थे। अर्हन्मुनिके गुरु दिवाकर यति और उनके गुरु इन्द्र थे। नाइलकुलका उल्लेख नन्दिसूत्र-पट्टावलीमें मिलता है । भूतदिन्न आचार्यको भी जो आर्य नागार्जुनके शिष्य थे 'नाइलकुलवंशनंदिकर' विशेषण दिया गया है । जैनागोंकी नागार्जुनी वाचनाके कर्ता यही माने जाते हैं । मुनि श्रीकल्याणविजयजी आर्य स्कन्दिल और नागार्जुनको लगभग समकालीन मानते हैं? और आर्य स्कन्दिलका समय वि० सं० ३५६ के लगभग है । पुष्पिकामें विमलसूरिको पूर्वधर कहा है। __रविषेणने न तो अपने किसी संघ या गण-गच्छका कोई उल्लेख किया है और न स्थानादिकी ही कोई चर्चा की है । परन्तु सेनान्त नामसे अनुमान होता है कि शायद वे सेनसंघके हो यद्यपि नामोंसे संघका निर्णय सदैव ठीक नहीं होता। इनकी गुरुपरम्पराके पूरे नाम इन्द्रसेन, दिवाकरसेन, अर्हत्सेन और लक्ष्मणसेन होंगे, ऐसा जान पड़ता है। उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें जो वि० सं० ८३५ के लगभगकी रचना है विमलसूरिके विमैलांक (पउमचरिय ) की और रविषेणके.पद्मचरितकी ( तथा जटिलमुनिके वरांगचरितकी भी) प्रशंसा की है। इससे मालूम होता है कि उनके सामने ये दोनों ही ग्रन्थ मौजूद थे। १ आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः।। तस्मॉलक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तत्स्मृतः ॥ ६९ ।। २ देखो, 'वीर-निर्वाण-संवत् और जैन-कालगणना', नागरी-प्रचारिणी पत्रिका भाग १०-११ ३-जारसियं विमलंको विमलंको तारिसं लहइ अत्यं । ___ अमयमइयं च सरसं सरसंचिय पाइअं जस्स ॥ ४-जेहिं कए रमणिजे वरंग-पउमाणचरियवित्थारे । कहव ण सलाहणिजे ते कइणो जडिय-रविसेणो॥ ५-पुन्नाटसंघीय जिनसेनने और अपभ्रंश भाषाके कवि धवलने रविषेणके बाद जटिलमुनिका उल्लेख किया है, इससे अनुमान होता है कि जटा-सिंहनन्दिका वरांगचरित शायद रविषेणके पद्मचरितके बादका हो। ६-पउमचरियकी जयसिंहदेवके राज्य-कालमें एक ताडपत्रपर लिखी गई वि०सं० ११९८ की प्रति भडोचमें उपलब्ध हुई है। (देखो जैसलमेरके ग्रन्थ-भंडारकी सूची पृ० १७) १८
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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