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________________ हमारे तीर्थक्षेत्र २०१ इसमें भी माँगी-तुङ्गी नहीं केवल तुङ्गीगिरि नाम है। द्विज विश्वनाथका ठीक समय मालूम नहीं हो सका, पर वे किसी अर्वाचीन भट्टारकके ही शिष्य थे। श्रमणगिरि या ऋष्यद्रि अंगानंगकुमारा विक्खापंचद्धकोडिरिसिसहिया । सुवण्णगिरिमत्थयत्थे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ ९ ॥ अर्थात् श्रमणगिरिके मस्तकसे अंग-अनंगकुमार आदि साढ़े पाँच करोड़ विख्यात मुनियोंका निर्वाण हुआ। श्रमणगिरिके अपभ्रंश क्रमशः श्रवन, सवन, सोन, सोनागिरि हो जाते हैं, इसलिए साधारण समझ यह हो गई है कि दतिया स्टेटका वर्तमान सोनागिरि ही श्रमणगिरि सिद्धक्षेत्र है । परन्तु इस विषयमें सन्देह करनेकी काफी गुंजाइश है । निर्वाण-भक्तिका नवाँ पद्य इस प्रकार है द्रोणीमति प्रवरकुण्डलमेढ़के च वैभारपर्वततले वरासेद्धकूटे । ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रिबलाहके च विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ।। इसके 'ऋष्यद्रिके' का अर्थ टीकाकार श्रीप्रभाचन्द्रने 'श्रमणगिरौ' किया है। अर्थात् इसके अनुसार भी श्रमणगिरि सिद्धक्षेत्र है। परन्तु वैभार, बलाहक, विपुलाचलके साथ उल्लेख होनेसे यह खयाल आता है कि कहीं यह श्रमणगिरि भी वैभार आदि पाँच पर्वतों से एक न हो। पाठक जानते हैं कि राजगृहके पास पाँच पर्वत हैं जिनके नाम क्रमशः वैभार, विपुल, उदय, रत्न और श्रमणगिरि हैं । दिगम्बरजैनीडरेक्टरीमें यही पाँच नाम दिये हुए हैं परन्तु कहीं कहीं श्रमणगिरिको सुवर्णगिरि या सोनागिरि भी लिख दिया है और इसका कारण श्रमणके अपभ्रंश-रूपकी और सुवर्णके अपभ्रंशकी प्रायः समानता है । श्रीविजयसागर साधुकी संवत् १६६४ में लिखी हुई तीर्थमालामें सुवर्णगिरि १ ‘सवणागिरिवरसिहरे ' भी पाठ मिलता है। २ ऐ० प० स० भवनके एक गुटके में 'ऋष्यद्रिके'के स्थानपर 'रूप्याद्रिके' पाठ दिया है, जो बिल्कुल अद्भुत है । श्रमण सोना बनते-बनते चाँदी बन गया ! ३ देखो पं० पन्नालालजी सोनी-द्वारा सम्पादित 'क्रिया-कलाप' पृष्ठ २२६ ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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