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________________ जैनसाहित्य और इतिहास उससे मालूम होता है कि इनके गुरुका नाम श्रीविमलसेन गणधर ( गणी ) था' । दर्शनसार नामक ग्रन्थके अंत में वे अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि पूर्वाचार्यों की रची हुई गाथाओंको एक जगह संचित करके श्रीदेवसेन गणिने धारानगरी में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में माघ सुदी दशवीं विक्रम संवत् ९९० को यह दर्शनसार नामक ग्रन्थ रचों | इससे निश्चय हो जाता है कि उनका अस्तित्वकाल विक्रमैकी दशवीं शताब्दिका अन्त है । अपने अन्य किसी ग्रन्थ में उन्होंने ग्रंथ-रचनाका समय नहीं दिया है । १७० यद्यपि इनके किसी ग्रन्थमें इस विषयका उल्लेख नहीं है कि वे किस संघके आचार्य थे; परन्तु दर्शनसारके पढ़नेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे पद्मनंदि या कुन्दकुन्दकी अन्वयके आचार्य थे। दर्शनसारमें उन्होंने काष्ठासंघ, द्रविडसंघ, माथुरसंघ और यापनीयसंघ आदि सभी जैन संघों की उत्पत्ति बतलाई है और उन्हें जैनाभास कहा है; अतएव वे इन संघों में से किसी संघ के नहीं थे । दर्शनसारकी ४३ वीं गाथमें लिखा है कि यदि आचार्य पद्मनन्दि ( कुन्दकुन्द ) सीमन्धर स्वामीद्वारा प्राप्त दिव्यज्ञानके द्वारा बोध न देते तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? इससे यह निश्चय हो जाता है कि वे श्री कुन्दाचार्यकी आम्नायके थे । इसके सिवाय अपने किसी गणगच्छादिका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है । 6 १ – सिरिविमलसेण गणहरसिस्सो णामेण देवसेणो ति । अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ २ - पुव्वायरियकयाइं गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९ ॥ इओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए नवए । सिरिपासणाह गेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥ ५० ॥ ३ - दर्शनसारकी अन्य गाथाओं में जहाँ जहाँ संवत्का उल्लेख किया हैं, वहाँ वहाँ पद देकर विक्रम संवत् ही प्रकट किया है । इसके ब विक्कमरायस्य मरणपत्तस्स , धारा ( मालवा ) में विक्रम संवत् ही प्रचलित रहा है । ४ - जइ पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोह तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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