SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाकटायन और उनका शब्दानुशासन १५१ ७-उनकी ( तस्य शाकटायनस्य) बड़ी भारी वृत्ति (अमोघवृत्ति) को संकोच करके यह छोटी-सी परन्तु सम्पूर्ण लक्षणोंवाली वृत्ति मैं ( यक्षवर्मा ) कहूँगा। ध्यान रखना चाहिए कि ये पाँचों श्लोक शाकटायनका वर्णन करनेवाले हैं। इनमेंके ' यः' (श्लोक ३-४), यदुपक्रम शब्दका ' यत्' (श्लोक ५ ) और 'यस्य' (श्लोक ६) ये तीनों सम्बन्धद्योतक सर्वनाम सातवें श्लोकके ' तस्य' शब्दसे सम्बन्ध रखते हैं । यह 'तस्य' शब्द कर्तरि षष्ठिमें बनाया गया है और यह सातवें पद्यका मुख्य वाक्यांश है। अन्वय इस तरह होता है-' यदुपक्रमं शब्दानुशासनं सावं तस्य महतीं वृत्तिं संहृत्य इयं लघीयसी वृत्तिर्वक्ष्यते यक्षवर्मणा' अर्थात् जिसका बनाया हुआ सर्वोपयोगी शब्दानुशासन नामक व्याकरण है, उसीकी बनाई हुई बहुत बड़ी टीकाको संकोचकर मैं यह छोटी-सी टीका बनाता हूँ । इससे निश्चय हो गया कि मूल शब्दानुशासन और उसकी अमोघवृत्ति टीका ये दोनों ग्रन्थ एक ही शाकटायनने बनाये हैं । मि० राइस साह बने इसके लिए चिदानन्द कविके ' मुनिवंशाभ्युदय' नामक कनड़ी काव्यसे एक प्रमाण दिया है । यह कवि मैसूरके चिक्कदेवराजाके समयमें ( ई. सन् १६७२-१७०४ ) हुआ है और — चारुकीर्ति पंडितदेव' इसकी उपाधि थी। कविके कनड़ी श्लोकोंका अर्थ यह है " उस मुनिने अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मन्थन कर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला। शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानुशासनको बना लेनेके बाद अमोघवृत्ति नामकी टीका--जिसे बड़ी शाकटायन कहते हैं--- बनाई जिसका कि परिमाण १८००० है । जगत्प्रसिद्ध शाकटायन मुनिने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया। एक बार अविद्धकर्ण सिद्धान्तचक्रवर्ती पद्मनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित शाकटायनको मन्दर पर्वतके समान धीर विशेषणसे विभूषित किया ।” गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमान कवि-जो विक्रम सं० ११९७ में हुए हैंअपने ग्रन्थमें शाकटायनके नामसे जिन जिन बातोंको उद्धृत करते हैं वे अमोववृत्तिमें ही मिलती हैं, मूलसूत्रोंमें नहीं । इससे मालूम होता है कि वर्धमान जानते थे कि अमोघवृत्ति शाकटायनकी ही है और इसीलिए उन्होंने उसके उदाहरण शाकटायनके नामसे देना अनुचित न समझा। शाकटायनस्तु कर्णे टिरिटिरिः कर्णे चुरु-चुरुरित्याह । —गणरत्न पृष्ठ ८२ और अमोघवृत्ति २।१।५७
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy