SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनसाहित्य और इतिहास महावीर भगवानका बनाया हुआ व्याकरण तैयार कर दिया और उसका दूसरा नाम ' भगवद्वाग्वादिनी' रक्खा ! इस भगवद्वाग्वादिनीकी एक प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें है, जो तक्षक नगरमें रत्नर्षि नामक लेखकद्वारा वि० सं० १७९७ में लिखी गई थी। इसकी पत्रसंख्या ३०, और श्लोकसंख्या ८०० है। प्रति बहुत शुद्ध है। जैनेन्द्रका सूत्रपाठ मात्र है और वह सूत्रपाठ है जिसपर शब्दार्णवचन्द्रिका टीका लिखी गई है । इस वाग्वादिनीके आविष्कारकने शक्ति-भर इस बातको सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि इसके कर्त्ता साक्षात् महावीर भगवान् हैं, दिगम्बरी देवनन्दि नहीं । उनकी सब युक्तियाँ हमने इस ग्रन्थके अन्तमें उद्धृत कर दी हैं। उन सबपर विचार करने की यहाँ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। हमारा अनुमान है कि डॉ. कीलहानके हाथमें यह 'भगवद्वाग्वादिनी' की प्रति अवश्य पड़ी होगी और इसीकी कृपासे प्रेरित होकर उन्होंने अपना पूर्वोक्त लेख लिखा होगा। उनके लेखमें जो श्लोकादि प्रमाणस्वरूप दिये गये हैं वे भी सब इसी परसे लिये गये जान पड़ते हैं । डॉ० कीलहान के इस भ्रमको सबसे पहले स्व० डॉ० के० बी० पाठकने दूर किया और अब तो जैनेन्द्र व्याकरणकी काफी प्रसिद्ध हो चुकी है। देवनन्दि और पूज्यपाद श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ४० ( ६४ ) में लिखा है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धिकी महत्ताके कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ। १ यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥२॥ श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥३॥ जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः स्वकः । छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदामाख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः ॥४॥
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy