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________________ ४३. में समता धारै चङ्ग, ताम्बुल नेम धारै मन रङ्ग || ७ || सूत ऊनु रेशम नो जोय, वस्त्र अभिग्रह धारें सोय । फूलादिक सुगन्ध अपार, संघण मेरा करें सुखसार ||८|| अश्व रथादिक नी असवारी, बाहनाभिग्रह करै मन बारी । पल्यङ्कादिक सयण सुजाण, वैसण सोवण विध परिमाण ॥६॥ केशर चन्दण ने घनसार, विलेपन नी मर्याद विचार । देव मनुष्य तिर्यश्च ना जोय, भोग छाड़ी ब्रह्मचारी होय. ॥ १० ॥ पूर्व पश्चिम उत्तर, दक्षिण उर्द्ध अधो धारै विचक्षण । भ्रमण तणो मन मेटी भ्रम, पाप सेवन त्यागे दिल नर्म || ११ || एक दोय उपरान्त उदार, अंग पखालण 1 परिहार | हस्त पाद धोवण विध जोय, ते पिण त्यागै समता वसोय ॥१२॥ असनादिक चिहुॅ विधि आहार, त्यामें एक वे आदि त्यागे सार । तथा तोल मान करें जेह, भात गिनत संख्या धारेह ॥ १३ ॥ एह चवदै नेम कहीजे, त्यांमें लेन बेचन बहु काम गिणिजै । खावण पीवण मर्याद करीजै, करण योग दिल माँह धरीजै ॥ १४॥ L अनन्त काल भव भ्रमण मिटावे, सुख सम्पति आनन्द चवर्दे नेम हृदय जे ध्यावै, नरक निगोद मांहें उपावै । जन रक्षाकर -
SR No.010292
Book TitleJain Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKeshrichand J Sethia
PublisherKeshrichand J Sethia
Publication Year
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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