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________________ रावणका दिग्विजय। .runnao स्वागत करता है वैसे ही रावण तत्काल ही सिंहासनसे उतर, माणिमय पादुकाका परित्यागकर उनका स्वागत करनेको गया और उनको अर्हत प्रभुके गणधर समान समझता हुआ, पाँच अंगोंसे भूमिको स्पर्शकर वह उनके चरणोंमें पड़ा। फिर उसने मुनिको, आसन दे बैठनेके लिए निवेदन किया। मूर्तिमान विश्वासके समान, जगतको आश्वासन देनेमें बन्धुके समान वे मुनि रावणको कल्याण की माताके समान 'धर्मलाभ' रूपी आशिस देकर आसनपर बैठे । रावण भी नमस्कारकर उनके सामने पृथ्वीपर बैठ गया। __ पीछे रावणने हाथ जोड़कर मुनिसे आगमनका कारण पूछा । निर्दोष वाणीसे मुनिने कहा:-" मैं माहीष्मतीका शतबाहु नामक राजा था। एकवार, सिंह जैसे आगसे डरता है, वैसे ही मैं भी संसार-वाससे डर गया । इस लिए मैंने, अपने पुत्र सहस्रांशुको राज्य दे, मोक्षमार्गमें जानेके लिए रथके समान, इस चारित्रको ग्रहण कर लिया।" मुनि इतना ही बोले थे कि रावणने सिर झुका कर पूछा:-"क्या यह महाभुज आपका पुत्र है ? " मुनिने स्वीकार किया। रावण फिर बोला:-"मैं दिग्विजयके लिए फिरता हुआ इस रेवा नदीके तटपर आया और यहीं पड़ावकर, विकसित कमलोंसे प्रभुकी पूजाकरनेमें तन्मय हो, एकाग्र चित्तसे ध्यान करने लगा । ऐसेहीमें
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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