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________________ रावणका दिग्विजय । ५७ द्रके चढ़ावकी भाँति अकस्मात् रेवा नदीमें बड़ा भारी पूर आया । जल गुल्म-तृणगुच्छकी भाँति वृक्षोंको जड़से उखाड़ता हुआ नदीके ऊँचे २किनारों पर भी फैलने लगा। आकाशतक उछलती हुई तरंगोंकी पंक्तियाँ कांठेको गिराकर तटपर बंधी हुई नौकाओंको परस्पर टकरवाने लगी। पातालकी गुफाके समान किनारेकी बड़ी बड़ी खीणोंको-किनारेके खड्डोंको-जलके पूरने भर दिया। जैसे कि उदरंभरि-पेटू-के पेटको भोजन भर देता है । पूर्णिमाकी चंद्र-ज्योत्स्ना जैसे ज्योतिश्चक्रके सब विमानों को ढक देती है, वैसे ही उस पूरने रेवा नदीके अंदर जितने टापू-द्वीप-थे उनको चारों तरफसे ढक दिया । जैसे महावायु वेगके आवर्तसे-गोलचक्करसे-वृक्षोंके पत्तोंको उछालता है, वैसे ही उस जलके पूरने उठती हुई बड़ी बड़ी तरंगोंसे मत्स्योको-मच्छोंको-उछालना प्रारंभ किया। ___ उस फेन-झाग-वाले और कचरेवाले पानीके पूरने वे के साथ आकर, रावणकृत अहंत पूजाको प्लावित कर दिया। पूजाका भंग होना, शिरच्छेदकी-सिर कटनेकीपीड़ासे भी उसको ज्यादा दुःखदायी हुआ। वह क्रोधके साथ आक्षेप करता हुआ बोला:-" अरे! यह कौन विना कारण वैरी बना है, कि जिसने इस दुर्निवार जलके समूहको अहंतकी पूजामें विघ्न डालनेके लिए छोड़ दिया
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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