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________________ रावणका दिग्विजय। ५५ वाले, पके हुए बिंबफलके समान अधरवाले, उस सुंदरीके मुखको मैं कब चूमूंगा ? अपने हाथोंसे उस रमणीके स्तन कुंभोंका मैं कब स्पर्श करूँगा ? और गाढ आलिंगन करके उन स्तनोंको मैं कब दबाऊँगा? बलसे या छलसे किसी प्रकारसे भी क्यों न हो मैं उस सुन्दरीका अवश्यमेव हरण करूँगा।" ___ इस भाँति विचार कर, रूप बदलनेवाली 'शेमुषी' नामकी विद्या सीख, चक्रांक राजाका पुत्र साहसगति हिमाचलकी क्षुद्र गुफामें जाकर उस विद्याको साधनेके प्रयत्नमें लगा। रावणका दिग्विजयके लिए प्रयाण करना। इधर रावण दिग्विजयके लिए लंकासे बाहिर निकला; मानो पूर्व गिरिके तटमेंसे सूर्य निकला है । अन्यान्य द्वीपोंमें रहनेवाले विद्याधरोंको और राजाओंको वशमें कर, रावण पाताल लंकामें गया। वहाँ सूर्पणखाके पति खरने विनीत, मधुर वचनों द्वारा और भेटों द्वारा सेवककी भाँति रावणकी सविशेष प्रकारसे पूजा की। चहाँसे रावण इन्द्र विद्याधरको जीतनेके लिए चला। खर विद्याधर भी अपनी चौदह हजार सेनाले, उसके साथ रवाना हुआ । सुग्रीव भी अपनी सेना लेकर, जैसे वायुके पीछे अग्नि जाती है वैसे ही, राक्षसपति रावणके पीछे चला।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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