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________________ ३०८ जैन रामायण छठा सर्ग। दिन हृदयमें सन्तोष आनेसे और हनुमानके आग्रहसे. उन्होंने भोजन किया । फिर सीता बोली:-" हे वत्स! मेरा चिन्हस्वरूप यह चूडामणि ले और यहाँसे शीघ्र ही चला जा । यहाँ विशेष समयतक रहनेसे तुझको कष्ट भोगना पड़ेगा।यदि क्रूर राक्षस तेरे आगमनकी बात जानेंगे तो वे तुझको मारनेके लिए अवश्यमेव यहाँ आयेंगे।" सीताके ऐसे वचन सुन, हनुमान कुछ हँसे और हाथ जोड़ कर सविनय बोले:-" हे माता ! वात्सल्यके कारण भीत होकर आप ऐसे वचन कह रही हैं । तीनों लोकके जीतनेवाले रामका मैं दूत हूँ। मेरे लिए विचारा. रावण और उसकी सेना कापदार्थ हैं-तुच्छ हैं। हे स्वामिनी! यदि आज्ञा दो तो रावणको मार, उसकी सेनाको नष्ट कर, मैं आपको अपने कंधोंपर बिठा, अपने स्वामीके पास ले जाऊँ।" सीताने हँसकर कहा:-“हे भद्र ! तुम्हारे वचनोंसे प्रतीत होता है कि, तुम अपने स्वामी रामभद्रको लज्जित नहीं करोगे । तुम राम और लक्ष्मणके दूत हो; इस लिए. तुममें सब प्रकारकी शक्तिका होना संभव है । परन्तु मैं लेशमात्र भी परपुरुषका स्पर्श नहीं चाहती। अत: तुम शीघ्र ही रामके पास जाओ। यहाँ जो कुछ तुम्हें करना था तुम कर चुके, अब तुम्हारे वहाँ पहुँचनेपर राम जो कुछ उचित होगा करेंगे।"
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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