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________________ ३०६ जन रामायण छठा सर्ग | सेवा करने को तत्पर है; फिर तुम उसे क्यों नहीं चाहती हो ? हे सुभ्रू ! यदि तुम रावणको चाहोगी, तो मैं और उसकी अन्य रानियाँ तुम्हारी आज्ञाधारिणी बनेंगी । " सीता बोली :- " हे पतिका दूतिपन करनेवाली पापिनी ! रे दुर्मुखी ! तेरे पतिकी तरह ही तेरा मुख भी देखने योग्य नहीं है । रे दुष्टा ! खर आदि राक्षसोंके मारनेवालेको, तेरे पति और देवरोंको वध करनेके लिए अब आया ही समझ और मुझको रामके चरणों में गई ही समझ । उठ जा, पापिष्ठे ! अब यहाँसे उठ जा; मैं तुझसे बातचीत करना नहीं चाहती । " सीताद्वारा इस भाँति तिरस्कृत होकर, मंदोदरी कुछ क्रुद्ध बन वहाँसे चली गई । हनुमानका सीतासे मिलना । उसके जाते ही हनुमान प्रकट हुए और सीताके सामने हाथ जोड़, नमस्कार कर, बोले :- "हे देवी ! सद्भाग्य से राम, लक्ष्मण सहित, आनंदमें हैं। रामकी आज्ञा से मैं तुम्हारी शोध करनेके लिए यहाँ आया हूँ। मेरे वापिस जाने पर राम शत्रुओंका संहार करनेके लिए यहाँ आवेंगे । " सीता आँखों में जल भरकर बोलीं- " हे वीर ! तुम कौन हो । इस दुर्लध्य समुद्रको पारकर, तुम यहाँ कैसे आये हो? मेरे प्राणनाथ लक्ष्मण सहित आनंदमें हैं न ? तुमने उनको कहाँ देखा था ? वे वहाँ अपना समय किस तरह बिताते हैं ? "
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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