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________________ हनुमानका सीताकी खबर लाना। २८५ हे महाभुज ! जो भावी है, वह कभी अन्यथा होनेवाला नहीं है; तथापि आपसे प्रार्थना है कि, अपने कुलकी नाश करनेवाली सीताको आप छोड़ दीजिए।" __ बिभीषणके वचन सुने ही न हों, इस तरह रावण वहाँसे उठ, अशोकवृक्ष के नीचेसे सीताको पुष्पक विमानमें विठा, फिरने लगा; उसको अपना ऐश्वर्य दिखाने लगा और कहने लगाः-" हे हंसगामिनी! रत्नमय शिखर वाले और स्वादिष्ट जलके स्रोतवाले ये पर्वत मेरे क्रीडा पर्वत हैं। नंदनवनके समान ये उद्यान हैं; इच्छानुरूप भोगने योग्य ये धाराग्रह हैं; हंस सहित ये क्रीडा करनेकी नदियाँ हैं । हे सुन्दर भ्रकुटीवाली स्त्री ! स्वर्ग खंडके तुल्य ये रतिगृह हैं। इनमेंसे जहाँ तेरी इच्छा हो, उसीमें तू मेरे साथ क्रीडा कर।" ___ सीता हंसकी भाँति रामके चरणकमलका ध्यान करती रही । रावणकी इस प्रकारकी बातें सुन उसको किंचित मात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। पृथ्वीकी भाँति धीर होकर वह सब कुछ सुनती रही। सारे रमणीय स्थानोंमें भ्रमण कर अन्तमें उसने सीताको वापिस अशोक वृक्षके नीचे छोड़ दिया। . ___ जब विभीषणने देखा कि, रावण उन्मत्त हो गया है। वह उसकी बात माननेवाला नहीं है। तब उसने उस विषयका विचार करनेके लिए कुल प्रधानोंको बुलाया ।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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