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________________ २६२ जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग। ऐसा सोच, तलवार खींच, रत्नजटी रावणपर दौड़ा। रत्नजटीके युद्धाव्हानको सुनकर रावण हँसा। फिर उसने अपने विद्याबलसे उसकी सारी विद्याएँ हर लीं। इससे पंख छेदित पक्षीकी भाँति रत्नजटी विद्याविहीन हो कंबूद्वीपमें पड़ा; और वहीं कंबू गिरिपर रहने लगा। रावण विमानमें बैठ कर आकाश मार्गसे जिस समय समुद्र पार कर रहा था, उस समय वह कामातुर हो सीतासे अनुनय करने लगा:-“हे जानकी.! सारे खेचर और भूचर लोगोंका जो स्वामी है। उसकी पट्टरानीके पदकों पाकर भी तुम कैसे रो रही हो ? हर्षके बजाय तुम शोक क्यों कर रही हो । मंदभागी रामके साथ पहिले विधिने तुम्हारा संबंध कर दिया वह अनुचित था; इस लिए मैंने अब उचित किया है। हे देवी ! सेवामें दासके समान मुझे तुम पतिकी भाँति मानो । मैं जब तुम्हारा दास हो जाऊँगा तब सारे खेचर और खेचरियाँ भी तुम्हारे दास दासी हो जायेंगे।" रावण ऐसे बोल रहा था उस समय सीता, नीचा. सिरकर, मंत्रकी भाँति भक्तिके साथ 'राम ' इन दो अक्षरोका जाप कर रही थी। सीताको बोलते न देख, कामातुर रावणने उनके पैरोंमें सिर रख दिया। परपुरुष-स्पर्श-कातरा सीताने तत्काल ही अपना पैर दूर खींच लिया और क्रोधपूर्वक रावणको कहाः-"रे
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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