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________________ २५८ जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग । wwwwwwwwwwwwwwwwwwww लक्ष्मण यह बात स्वीकारकर, रामकी आज्ञा ले, धनुषबाण धारणकर वहाँसे युद्धमें चले; और गरुड जैसे सोको मारता है, वैसे ही वे उनको मारने लगे । जब युद्ध बढ़ने लगा तब चंद्रनखा, अपने स्वामीके पक्षको प्रबल करनेके लिए तत्काल ही रावणके पास गई । __उसने रावणके पास जाकर कहा:-" हे भाई ! राम लक्ष्मण नामा दो अजाने पुरुष दण्डकारण्यमें आये हैं। उन्होंने तेरे भानजेको मार डाला है । यह बात सुनकर तेरा बहनोई खर विद्याधर अपने अनुज बन्धु सहित सेना लेकर वहाँ गया है, और अभी लक्ष्मणके साथ युद्ध कर रहा है । राम अपने अनुजके और स्वतःके बलके गर्वसे गर्वित होकर, अलग बैठा हुआ है, और सीताके साथ विलास कर रहा है । सीता स्त्रियोंमें रूपलावण्यकी अन्तिम सीमा है । उसके समान न कोई देवी है; न कोई नागकन्या है और न कोई मानुषी ही है । वह कोई जुदा ही है । उसका रूप सुर, असुरोंकी स्त्रियोंको भी दासियाँ बनावे ऐसा है; उसका रूप तीन लोकमें अनुपम और अकथनीय है-वाणी उसका वर्णन नहीं कर सकती है। हे बन्धु ! इस समुद्रसे लेकर दूसरे समुद्र पर्यंत पृथ्वीपर जितने भी रत्न हैं, वे सब रत्न तेरे योग्य हैं। इस लिए रूप संपत्चिद्वारा दृष्टिको अनिमेषी करनेवाले उस
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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