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________________ १३४ जैन रामायण तृतीय सर्ग । वैसे ही वह मुझको न मिली । सदा जीवित रहकर विरहानमें जलते रहना मैं सहन नहीं कर सकता, इसी लिए आज चितामें प्रवेश कर एक ही वार जल लेता हूँ । हे देवताओ ! यदि तुम मेरी कान्ताको कहीं देखो तो उसे कह देना कि, तेरे वियोगमें तेरे पतिने अग्निमें प्रवेश किया है । " I इतना कह, धूधू करके जलती हुई अग्नि चितामें गिरने के लिए पवनंजय उछलने लगा । प्रहलाद अबतक सब कुछ देख सुन रहा था । जैसे ही पवनंजयने उछल कर चिता में 1 कूदना चाहा वैसे ही प्रहलादने जाकर उसको पकड़ लिया और अपनी छाती से दबा दिया । पवनंजय चिल्ला उठा - " प्रियाके वियोगपीडाकी औषध रूप मृत्युमें यह क्या विघ्न आया ? किसने आकर शान्ति प्राप्त करनेमें वाधा डाली ? " आँखोंमें आँसू लाकर प्रहलादने उत्तर दियाः - " पुत्रवधूको घरसे निकाल देनेकी बातको उपेक्षा बुद्धिसे देखनेवाला यह तेरा पापी पिता प्रहलाद है । हे वत्स ! तेरी माताने पहिले एक अविचारी कार्य किया है । अब तू भी बुद्धिमान होकर उसी तरहका दूसरा कार्य न कर । स्थिर हो । हे वत्स ! तेरी पत्नीकी शोधके लिए मैंने हजारों विद्याधर भेजे हैं । अतः उनके लौट आनेकी राह देख | " प्रहलादने जिन विद्याधरोंको, पवनंजय और अंजनाकी
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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